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अहिंसा फिर किस काम की?


डेन्मार्क श्रौर नार्वे के अत्यन्त सुसंस्कृत और निर्दोष लोगों की किस्मत पर अफ़सोस करनेवालों में लेखक अकेले ही नहीं हैं। यह लड़ाई हिंसा की निरर्थकता दिखला रही है। फर्ज किया जाये कि हिटलर मित्र-राज्यों पर विजय हासिल कर लें, तो भी वह ब्रिटेन और फ्रांस को हर्गिज गुलाम नहीं बना सकेंगे। उसका अर्थ है दूसरी लड़ाई। और अगर मित्र-राज्य जीत जाये तो भी दुनिया की बेहतरी नहीं होगी। लड़ाई में अहिंसा का सबक सीखे बिना और अहिंसा के ज़रिये जो फायदा उठाया है उसे छोड़े बग़ैर वह अधिक शिष्ट भले ही हों, पर कुछ कम बेरहम नहीं होंगे। चारों ओर, जिन्दगी के हर पहलू में न्याय हो, यह अहिंसा की पहली शर्त है। मनुष्य से इतनी श्रपेच्ता करना शायद अधिक समझा जाये। लेकिन मैं ऐसा नहीं समझता। मनुष्य कहाँ तक ऊँचा जा सकता है और कहाँ तक गिर सकता है इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। पश्चिम के इन मुल्कों को हिन्दुस्तान की अहिंसा ने कोई सहायता नहीं पहुँचाई है। इसका कारण यह है कि यह अहिंसा अभी खुद बहुत कमजोर है। उसकी अपूर्णता देखने के लिए हम उतने दूर क्यों जायें? कांग्रेस की अहिंसा की नीति के बावजूद हम अपने देश में एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं। खुद कांमेस पर भी अविश्वास किया जा रहा है। जबतक कांग्रेस या उसके जैसा कोई और गिरोह सबल लोगों की अहिंसा पेश न करे, दुनिया में इसका संचार हो नहीं सकता। स्पेन और चीन को जो मदद हिन्दुस्तान ने दी वह केवल नैतिक थी