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युद्ध और अहिंसा


उन्होंने ईमानदारी और बहादुरी ही दिखाई है।

इसलिए मेरी स्थिति अकेले मुझतक ही सीमित है। मुझे अब यह देखना पड़ेगा कि इस एकान्त पथ में मेरा कोई दूसरा सहयात्री है या नहीं। अगर में अपने को बिलकुल अकेला पाता हूँ तो मुझे दूसरों को अपने मत में मिलाने का प्रयत्न करना ही चाहिये। अकेला होऊँ, या अनेक साथ हो, मैं अपने इस विश्वास को अवश्य घोषित करूँगा कि हिन्दुस्तान के लिए यह बेहतर है कि वह अपने सीमान्तों की रकशा के लिए भी हिंसात्मक साधनों का सर्वथा परित्याग करदे। शस्त्रीकरण की दौड़ में शामिल होना हिन्दुस्तान के लिए अपना आत्मघात करना है। भारत अगर अहिंसा को गँवा देता है, तो संसार की अन्तिम आशा पर पानी फिर जाता है। जिस सिद्धान्त का गत आधी सदी से में दावा करता आ रहा हूँ उस पर मैं जरूर अमल करूंगा और आखिरी सॉस तक यह आशा रखूंगा कि हिन्दुस्तान अहिंसा को एक दिन अपना जीवनसिद्धान्त बनायेगा, मानवजाति के गौरव की रच्ता करेगा और जिस स्थिति से मनुष्यने अपने को ऊँचा उठाया खयाल किया जाता है उसमें लौटने से उसे रोकेगा।

'इरिजन-सेवक' : १४ श्रक्तूबर, १६३६