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कसौटी पर


सशस्र युद्ध-विज्ञान सीखने के प्राथमिक कर्तव्य के प्रति भारी उपेक्षा दिखायी। और मुझे भय है कि इतिहास मुझे ही, लड़ाई के सेनापति के रूप में, इस दुःखजनक बात के लिए जिम्मेदार ठहरायेगा। भविष्य का इतिहासकार कहेगा कि यह तो मुझे पहले ही देख लेना चाहिए था कि राष्ट्र बलवान की अहिंसा नहीं बल्कि केवल निर्बल का अहिंसात्मक निष्क्रिय प्रतिरोध सीग्व रहा है, और इसलिए, इतिहासकार के कथनानुसार, कांग्रेसजनों के लिए सैनिक शिक्ता मुझे मुहैया कर देनी चाहिए थी।

इस विचार को रखते हुए कि किसी-न-किसी तरह भारत सच्ची अहिंसा सीख लेगा, मुझे यह नहीं हुआ कि सशस्र रच्ता के लिए अपने सहकर्मियों से ऐसा शिक्षण लेने को कहूँ। इसके विपरीत, मैं तो तलवार की सारी कला को और मजबूत लाठियों के प्रदर्शन को अनुत्साहित ही करता रहा। और बीते के लिए मुझे आज भी पछतावा नहीं है। मेरी आज भी वही ज्वलंत श्रद्धा है कि संसार के समस्त देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जो अहिंसा की कला सीख सकता है, और अगर अब भी वह इस कसौटी पर कसा जाये, तो संभवतः ऐसे हजारों स्री-पुरुष मिल जायेंगे, जो अपने उत्पीड़कों के प्रति कोई द्वेषभाव रखे बिना, खुशी से मरने के लिए तैयार हो जायेंगे। मैंने हज़ारों की उपस्थिति में बार-बार जोर दे-देकर कहा है कि बहुत संभव है कि उन्हें ज्यादा-से-जयादा तकलीफें झेलनी पड़े, यहाँ तक कि गोलियों का भी शिकार होना पड़े। नमक-सत्याग्रह के ज़माने में क्या