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युद्ध और अहिंसा


बँटवारा और शोषण का अधिकार चाहते हैं, जिसका मतलब निसन्देह युद्ध ही है। यह तयशुदा और स्वाभाविक-सा है कि ऐसा पुनर्विभाजन सशस्र संघर्ष के बिना कभी नहीं हो सकता। उसके बाद उपभोग के लिए कोई रहेगा या नहीं और उपभोग के लायक कोई चीज भी रहेगी या नहीं, यह निसन्देह दूसरा सवाल है। लेकिन संसार मुख्यतः इन्ही दो में बँटा हुआ है। अगर एक की बात को ठीक माना जाये, तो दूसरे की बात को भी ठीक मानना चाहिए, क्योंकि अगर इग्लैण्ड और फ्रांस बड़े-बड़े भूभागों और राष्ट्रों पर शासन करने का अधिकार है तो जर्मनी और इटली को भी जरूर वैसा ही अधिकार है। इग्लैण्ड और फ्रांस का हिटलर को इससे रुकने के लिए कहना उतना ही कम न्यायोचित है जितना कि हिटलर का वह दावा जिसे केि वह अपना काजिब हक बतलाता है।

“इस सम्बन्ध में तीसरा विचार क्या है, यह संसार मुश्किल से ही सोचता जान पड़ता है, क्योंकि वह कभी-कभी ही सुनाई पड़ता है। लेकिन वह इतना आवश्यक है कि वह व्यक्त होना ही चाहिए, क्योंकि वह उन लोगों की आवाज है जो सारे खेल में प्यादों के मानिंद हैं। असली सवाल न तो डांज़िग का है, न पोलिश कोराइडर का। सवाल तो दरअसल उस सिद्धान्त का है, जिसपर कि इस वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का सारा दारोमदार है। और वह है निर्बलों पर शासन करने और उनका शोषण करने के लिए बलवानों की लड़ाई। इसलिए यह सब उपनिवेशों