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पहेलियाँ


था। किसी विषय पर मैं पहले जो कुछ कह चुका हूँ उससे संगत होना मेरा उद्देश नहीं है, बल्कि प्रस्तुत अवसर पर मुझे जो सत्य मालूम पड़े उसके अनुसार करना मेरा उद्देश है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मैं सत्य की और निरंतर बढ़ता ही गया हूँ, अपनी याददाश्त को मैंने व्यर्थ के बोझ से बचा लिया है, और इससे भी बढ़कर बात यह है कि जब कभी मुझे अपने पचास वर्ष पहले तक के लेखों की तुलना करनी पड़ी है, तो अपने ताजा-से-ताजा लेखों से उन दोनों में मुझे कोई असंगति नहीं मिली। फिर भी जो मित्र उनमें असंगति देखते हैं, उनके लिए अच्छा यह होगा कि, जबतक पुराने से ही उन्हें कोई खास प्रेम न हो, वे उसी अर्थ को प्रहण करें जो मेरे सबसे ताज़ा लेखों से निकलता हो, लेकिन चुनाव करने से पहले उन्हें यह देखने की कोशिश करनी चाहिए कि ऊपर से दिखलाई देनेवाली असंगतियाँ के बीच ही क्या एक मूलभूत स्थायी संगति नहीं है?

जहाँतक मेरी अगम्यता का सवाल है, मित्रों को यह विश्वास रखना चाहिए कि अपने विचार सम्बद्ध होने पर उन्हें दबाने का प्रयत्न मैं कभी नहीं करता। अगम्यता कभी-कभी तो संक्षेप में कहने की मेरी इच्छा के कारण होती है, और कभी-कभी जिस विषय पर मुझसे राय देने के लिए कहा जाये उसके संबंध के मेरे अपने अज्ञान के कारण भी होती है।

नमूने के तौर पर इसका एक उदाहरण दूँ। एक मित्र, जिनके और मेरे बीच दुराव की कोई बात कभी नहीं रही, रोष