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২২০ युद्ध और अहिंसा


बुलन्द सिद्धान्त का सम्पूर्ण पालन कोई देहधारी कर ही नहीं सकता । यूक्लिड की रेखा लीजिए । उसकी हस्ती कल्पना में ही है। सूक्ष्म रेखा भी काग़ज़ पर खींचे तो भी उसमें कुछ न कुछ चौड़ाई होगी ही । इसलिए व्यवहार में सूक्ष्म रेखा खींचकर हम अपना काम चलाते हैं। सब सीधी दीवारें यूक्लिड के सिद्धान्त के मुताबिक टेढ़ी हैं । लेकिन हज़ारों वर्ष खड़ी रहती हैं ।

               ठीक यही बात अहिंसा के सिद्धान्त की है । जहाँ तक हो सके हम उसे अमल में लावें ।
     कम्बल बेचने की मनाही करना मेरे लिए आसान था ! लाखों की बिक्री में कुछ हज़ार की बिक्री की क्या कीमत हो सकती है ? लेकिन मेरी मनाही मेरे लिए शर्म की बात हो जाती; क्योंकि अपनी सच्ची राय को छिपाकर ही मैं मनाही कर सकता था ! मैं कहाँ-कहाँ मनाही की हद बाँधूँ ? मैं चावल-दाल का व्यापारी होकर, सिपाहियों को चावल-दाल न बेचूँ ? गंधी होकर, कुनैन या अन्य दवाइयाँ न बेचूँ ? न बेचूँ तो क्यों नहीं ? मेरी अहिंसा मुझे ऐसे व्यापार के लिए बाध्य करती है ? मैं ग्राहक की जातपाँत खोजकर मर्यादा बाधूँ ? उत्तर है कि मेरा व्यापार अगर समाज का पांपक है, हिंसक नहीं है, तो मुझे उसे करने में ग्राहकों की जात-पाँत की खोज करने का अधिकार नही है । अर्थान सिपाही को भी अपने व्यापार की वस्तु बेचना मेरा धर्म है। 

सेवाग्राम में, १८-६-४१ (चर्खा-द्वादशी)