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२१६ युद्ध और अहिंसा

प्रवृत्त होने से इन्कार करके नहीं, बल्कि बुद्धिपूर्वक निष्काम कर्म करते हुए मुझे वह मुक्ति प्राप्त करनी है । और इस लड़ाई का रहस्य ही इस बात में समाया हुआ है कि आत्मत्त्व को मुक्त और पूर्ण स्वाधीन करने के लिए शरीर तत्व का सतत यज्ञ किया जाय ।

     इसके अलावा जहाँ मैं एक ओर दूसरे लोगों के समान सामान्य बुद्धिवाला अहिंसावादी नागरिक था, वहाँ बाकी के लोग वैसे अहिंसावादी न होते हुए भी सरकार के प्रति रोप और द्वष-भाव के कारण ही उसकी मदद करने के कर्त्तव्य से विमुख थे। उनके इन्कार के मूल में उनका अज्ञान और उनकी निर्बलता थी । उनके साथी के नाते उनको सच्चे मार्ग पर लाने का मेरा धर्म था । इसलिए मैंने उनके सामने उनका प्रकट कर्तव्य उपस्थित किया । अहिंसा-तत्त्व समझाया और चुनाव करने के लिए कहा । उन्होंने वैसा ही किया और इसमें कुछ भी बुरा प्रतीत नहीं हुआ।
   इस प्रकार अहिंसा की दृष्टि से भी अपने कार्य में मैं पश्चाताप करने जैसी कोई बात नहीं देखता । कारण स्वराज्य में भी जो लोग हथियार धारण करते होंगे उन्हें वैसा करने और देश की खातिर लड़ने के लिए कहने में मैं सकोच न करूंगा ।
   और इसी में लेखक के दूसरे प्रशन का उत्तर आ जाता है । मेरी मनोभिलाषा के स्वराज्य में तो हथियारों की कहीं आवश्यकता न होगी, किन्तु आजकल के इस प्रजाकीय प्रयत्न द्वारा