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युद्ध के प्रति मेरे भाव जीवन का संचालन अनेक शक्तियों के द्वारा होता है। अगर कोई ऐसा सर्वसामान्य नियम होता कि उसका प्रयोग करते ही हर प्रसंग में कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करने के लिए क्ष्ण मात्र भी सोचना नहीं पड़ता तो क्या ही सरलता होती ! मगर मेरे जानते तो ऐसा एक भी अवसर नहीं है। मैं स्वयं युद्ध का पक्का विरोधी हूँ इसलिए मैंने अवसर मिलने पर भी कभी मारक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करना नहीं सीखा है। शायद इसीलिए मैं प्रत्यक्ष नर-नाश से बच सका हूँ । मगर जबतक मैं पशुबल पर स्थापित सरकार के अधीन रहता था और उसकी दी हुई सुविधाओं का स्वेच्छा से उपयोग करता था, तबतक तो अगर वह कोई लड़ाई लड़े तो उसमें उसकी मदद करना मेरे लिए लाजिमी था । मगर जब उससे असहयोग कर लूँ और जहाँ तक अपना वश चल सके, उसकी दो सुविधाओं का त्याग करने लगूँ तब उसकी मदद करना मेरे लिए लाजिमी नहीं रहता । एक उदाहरण लीजिए : मैं एक संस्था का सभ्य हूँ । उस संस्था के कुछ खेती है । अब आशंका है कि उस खेती को बंदर नुकसान पहुँचावेंगे । मैं मानता हूँ कि सभी प्राणियों में आत्मा है और इसलिए बंदरों को मारना हिंसा समझता हूँ । मगर फस्ल को बचाने के लिए बंदरों पर हमला करने को कहने या करने से मैं नहीं झिझकता । मैं इस बुराई से बचना चाहूँगा । उस संस्था को छोड़कर या तोड़कर मैं इस