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युद्ध और अहिम्स २६५ “और इसी में से दूसरा प्रश्न यह भी उठता है कि कुछ भी पाने के लिए लड़ाई में योग देना ही क्यों उचित है? “मेरी समझ् में नहीं आता कि गीता की शिक्षा से इस बात का मेल किस तरह मिलाऊन् ? गीता में तो कहा है कि फल का विचार त्याग कर कर्म करना चाहिए । “सारे अध्ययाय् में आपने यही दलील इस्तेमाल की है कि ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता की जाय अथवा नहीं ।और् मैं समझ्ता हूँ कि मूलत: सवाल व्यक्तिगत रूप में उठा होगा किन्तु यह इस किनारे तक ले ही जाता है कि युद्ध के रूप में युद्ध में हमें योगदान करना चाहिए या नहीं ?’

बेशक लड़ाई में योगदान के लिए मुझे प्रेरित करनेवाला उद्देश्य मिश्रित था । दो बातें मैं याद करता हूँ । यदि व्यक्तिगत रूप से मैं लड़ाई के विरुद्ध था किन्तु मेरी ऐसी स्थिति नहीं थी कि मेरे विरोध का असर पड़ सके । अहिम्समय विरोध तभी हो सकता है जबकि विरोध करनेवाले ने विरोधी की पहले कुछ सच्ची निःस्वार्थ सेवा की हो, सच्चे हार्दिक प्रेम का प्रदर्शन किया हो : जैसे कि किसी जंगली आदमी को पशु का बलिदान करने से रोकने के लिए मेरी तबतक कोई स्थिति नहीं होगी, जबतक कि मेरी किसी सेवा या मेरे प्रेम के कारण वह मुझे अपना मित्र न समझ ले । दुनिया के पापोन का न्याय करने मैं नहीं बैठता हूँ । स्वयं असम्पूर्न् होने के कारण, और् चूंकि खुद मुझे को औरोन् की सहनशीलता तथा उदारता की दरकार है, मैं संसार की