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             युद्ध के विरोध में युद्ध

एक सज्जन लिखते हैं : “यह पत्र लिखने का कारण यह है कि सत्य और अहिंसा के पुजारी होते हुए युद्ध के प्रति आपकी वृत्तिविषयक “आत्मकथा’ का अध्याय (‘धर्म को समस्या'; आत्मकथा : खण्ड ४; अध्याय ३६) पढ़कर बहुतों के मन में खलबली मच गये है । मुझसे अधिक शक्तिवाले लोग आपको उस बारे में लिखेंगे । मुझे जो थोड़ी बातें सूझती है वे आपको बताना चाहता हूँ ।

    सत्य और अहिंसा का सञ्चा पुजारी स्वयं बुरी वस्तुओं का विरोध न कर सकता हो तो भी उनका संग तो कभी नहीं कर सकता क्या यह उसके आचरण का मूलभूत सिद्धान्त नहीं है ? कुछ लोगों के कहे अनुसार युद्ध एक आवश्यक बुराई है । परन्तु उसके समाप्त होने के बाद जगत को उसकी दुष्टता का अधिक भान होगा, ऐसी आशा रखकर उसमें मदद देना चाहिए-यह बहाना ठीक नहीं है,न हो सकता है। बल्कि होता तो यह है कि मनुष्य की निष्ठुरता और भी जोरदार हो जाती है, और जीवन के प्रति पवित्रता की लगन मिट जाती है।