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धर्म की समस्या १७ थी नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि युद्ध में शरीक होने का एक ही रास्ता मेरे लिए खुला था ।

    जो मनुष्य बन्दूक धारण करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनों में अहिंसा की दृष्टि से कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता । जो आदमी डाकुऒं की टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करने का काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि खुद वह डाकू । इस दृष्टि से जो मनुष्य युद्ध में घायलों की सेवा करता है, वह युद्ध के दोषों से मुक्त् नहीं रह सकता । 
    पोलक् का तार आने के पहले ही मेरे मन में ये सब विचार उठ चुके थे । उनका तार आते ही मैंने कुछ मित्रों से इसकी चर्चा की । मैंने अपना धर्म समझ कर युद्ध में योग दिया था और आज भी मैं विचार करता हूँ तो इस विचार-सरणि में मुझे दोष नहीं दिखाई पड़ता । ब्रिटिश-साम्राज्य के संम्बन्ध में उस समय जो विचार मेरे थे उनके आनुसार ही मैं युद्ध में शरीक हुआ था और इसलिए मुझे उसका कुछ भी पश्चात्ताप नहीं है ।
     मैं जानता हूँ कि अपने इन विचारों का औचित्य मैं अपने समस्त मित्रों के सामने उस समय भी सिद्ध नहीं कर सका था । यह प्रश्न सूत्म है । इसमें मत-भेद के लिए गुंजाइश है। इसीलिए अहिंसा-धर्म को माननेवालों और सूत्म-रीति से उसका