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१६४ युद्ध और अहिंसा हिटलर या मुसोलिनी जैसे आदमियों का उद्धार हो ही नहीं सकता। लेकिन अहिंसा में विश्वास रखनेवालों की आस्था ही इस आधार पर है कि मानव-स्वभाव मूलतः एक ही है और उस पर प्रेम के बर्ताव का ज़रूर ही प्रभाव पड़ता है। इतने काल से मनुष्य हिंसा का ही प्रयास करता आया है और उसका प्रतिघोष हमेशा उल्टा है। यह कह सकते हैं कि संगठित अहिंसात्मक मुकाबले का प्रयोग अभी मनुष्य ने कहीं भी योग्य पैमाने पर नहीं देखा। इसलिए यह लाजिमी है कि जब वह यह प्रयोग देखेगा, तब इस की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेगा। फिर मैंने जिस अहिंसात्मक प्रयोग की तजवीज चेक प्रजा के सामने रखी थी, उसकी सफलता अधिनायकों के सद्भाव पर निर्भर नहीं करती, कारण कि सत्याग्रही तो केवल ईश्वर के बलपर ही लड़ता है और पहाड़ जैसी दीख पड़नेवाली कठिनाइयों के बीच वह ईश्वर-अद्धा के बल पर टिका रहता है।

प्रश्न-लेकिन ये यूरोप के अधिनायक प्रत्यक्ष रीति से बल-प्रयोग तो करते नहीं। वे तो जो चाहते हैं उसपर सीधा ही कब्जा करलेते हैं। ऐसी स्थिति में अहिंसात्मक लड़ाई लड़ने वाले को क्या करना चाहिए? गांधीजी-मान लीजिए ये लोग आकर चेक प्रजा की कानों, कारखानों और दूसरी प्राकृतिक सम्पत्ति के साधनों पर कब्जा करलें, तो फिर इतने परिणाम आयेंगे:- (1) चेक प्रजा के सविनय अवज्ञा करने के आधार पर भार डाला जाय। अगर ऐसा हुआ, तो वह चेक राष्ट्र की महान् विजय और जर्मनी के