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युद्ध और अहिंसा


मैं यह जानता हूँ कि हिन्दुस्तान में ही, जहाँ कि मैं खुद काम कर रहा हूँ और जहाँ अपने को सेनापति मानता हूँ, इसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया गया है, तो फिर यहूदियों से इसे स्वीकार कराने की आशा कैसे की जा सकती है?

मेरा जवाब यह है कि वे लोग धन्य हैं जो किसी बात की आशा नहीं करते। कम-से-कम इस मामले में मैं उन्हीं की श्रेणी में हूँ, क्योंकि यह नुस्खा पा जाने और इसके असर के बारे में निश्चय हो जाने पर मुझे ऐसा लगा कि प्रभावशाली रूप में उस पर अमल हो सकने की भी सूरत देखते हुए मैं इस तरफ ध्यान न खींचूँ, तो वह मेरी ग़लती होगी।

अभी तक यूरोप की राजनीति की चर्चा करने से मैं बचता ही रहा हूँ। मेरी सामान्य स्थिति अब भी वही है। अबीसीनिया के मामले में लगभग दबी हुई आवाज में मैंने यह उपाय पेश किया था। चेकों और यहूदियों का मामला मुझे अबीसीनियनों से भी अधिक स्पष्ट मालूम पड़ा। इसलिए मैं इस बारे में लिखे बिना न रह सका। डा. माँटने उस दिन मुझसे शायद यह ठीक ही कहा था कि चेकों और यहूदियों के बारे में मैंने जैसे लेख लिखे वैसे मुझे ज्यादा-से-ज्यादा लिखते जाना चाहिए, क्योंकि और कुछ नहीं तो इनसे हिन्दुस्तान की लड़ाई में तो मुझे मदद मिलेगी ही। और अहिंसा का सन्देश सुनने के लिए इस समय पश्चिमी राष्ट्र जितने तैयार हैं उतने इससे पहले कभी न थे।

'हरिजन सेवक' : १० दिसम्बर, ११३८