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60/यह गली बिकाऊ नहीं
 


में फुसफुसायो—“लगता है, यह फ़िल्म की जुबान है, प्रेमियों की भाषा है !"

"आप इस तरह बोलते रहेंगे तो हम फ़िल्म कैसे देख सकते हैं ? बोलना ही है तो बाहर जाकर बोलिए !"--पीछे की सीट से कैंची-सी जुबान चली तो दोनों ने अपनी जुवान खींच ली।

फ़िल्म के समाप्त होने तक उनसे वहां रहा नहीं गया। बीच में ही उठकर चल पड़े। वहाँ से चलकर वे माउंट रोड स्थित एक पश्चिमी ढंग के वातानुकूलित होटल में नाश्ता करने के लिए घुसे । सीट पर बैठकर नाश्ते के लिए ऑर्डर देने के बाद मुत्तकुमरन ने माधवी से पूछा, "जब तुम भी मेरी तरह इन अधकचरी फ़िल्मों से नफ़रत करती हो तो ऐसी स्थिति में, इस क्षेत्र में कैसे रह पा रही हो ?"

"दूसरा चारा भी बया है ? पढ़ी-लिखी होने के कारण इसका बुरा-भला-- सब-कुछ समझ में आ जाता है। पर किसी दूसरे के सामने हम इसकी बुराई मुँह से नहीं निकालते । इस क्षेत्र में, चापलूसी और सच्ची स्तुति के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं है। सब चापलूस हैं, सच्ची स्तुति कुछ नहीं है। इसलिए फ़िक्र की कोई बात नहीं । अपने से जो बन पड़े, उसे ईमानदारी से करना चाहिए और बाकी दूसरों पर छोड़ देना चाहिए । यह भलमनसाहत इस क्षेत्र में ढूंढे नहीं मिलती। यहां यही मनोभावना काम करती है कि हर कोई हर काम कर सकता है । इस भावना को उतनी आसानी से कोई उखाड़ नहीं सकता!"

"इन सबमें गोपाल कैसा है?"

"आप पूछ रहे हैं इसलिए सतही बातें नहीं करना चाहिए !"

"सच्ची बात ही बताओ!".

"इस फील्ड' में जब आये थे, तब दिल लगाकर बड़ी ईमानदारी के साथ

काम किया था। अब तो दूसरों की तरह हो गये। सच्चाई विदा हो गयी !"

"कला के क्षेत्र में आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"माने?"

"सच्ची-श्रद्धा होनी चाहिए !"

"बहुत से लोग शरीर को कोई कष्ट हो-ऐसा कोई काम नहीं करते । आप तो एक सीढ़ी ऊपर चढ़कर कहते हैं कि आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"हाँ, हृदय की बात, अन्दर की बात कहता हूँ। बिना आत्म-वेदना के मुझसे कविता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती, बिना आत्म-वेदना के मुझसे कहानी की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती । बिना आत्म-वेदना के तो मैं संवाद की एक पंक्ति भी नहीं लिख पाता !"

"हाँ, सम्भव है। क्योंकि कला के प्रति आप की ऐसी श्रद्धा है, जिसके लिए आप में तड़प है. और आप आत्म-वेदना का अनुभव करते हैं। लेकिन यहाँ कइयों को यह भी मालूम नहीं है कि आत्म-वेदना किस चिड़िया का नाम है ? पूछेगे कि.