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यह गली बिकाऊ नहीं/55
 

"लगता है कि आप मुझपर नाराज हैं ! मैंने खाते हुए ही देख लिया था !"

"नाराज न होऊँ तो क्या करूँ ? तुम तो गोपाल से बहुत डरती हो !"

"आप मेरी स्थिति में होते तो क्या करते ? पहले सोचिए फिर बताइयेगा।"

"वह घमंड में चूर है तो चूर रहे ! मैं पूछता हूँ, तुम क्यों इतना दबती हो?

खाना परोसना तो एक बात हुई ! पर जूठे बरतन क्यों उठा लायी ?"

"मैं इस स्थिति में क्या कर सकती हूँ ?"

"कुछ नहीं कर सकती हो तो डूब मरो ! गुलाम ही दुनिया में नरक का सृजन करते हैं !"

"सच पूछिये तो मैंने अपने दिल को एक ही व्यक्ति का गुलाम बनाया है। वह भी मुझ पर गुस्सा उतारे तो मैं क्या करूं ?"

"तुमने जिस पर अपना दिल निछावर किया है, तुम्हें चाहिए कि ऐसा काम करो, जिससे उसका सिर ऊँचा हो। न कि तुम्हारे कामों से उसका सिर नीचा हो! पर तुम्हारे काम ऐसे कहाँ हैं ?"

माधवी की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो मुत्तुकुमरन् ने आँख उठाकर देखा। ?

माधवी की सुन्दर आँखें छल छला आयी थीं।

"तुम्हें कहने से कोई फायदा नहीं ! उस बदमाश के कान उमेठकर पूछना चाहिए कि नृत्य और गायन तो अनूठी कलाएँ हैं। उनमें पगे-लगे हाथों से तुमने जूठे बरतन कैसे उठवाये ? तुम्हारा सत्यानाश होगा ! तुम देख लेना एक दिन उसके मुँह के सामने पूछता हूँ कि नहीं ?"

मुत्तुकुमरन् जोश में भरकर चीखने को हुआ तो माधवी की मुलायम उँगलियों ने उसका मुंह बन्द कर दिया।

"दया करके ऐसा कुछ न कीजियेगा। मुझे गौरव प्रदान करने के प्रयास में, आपको अपना गौरव नहीं खोना चाहिए !" माधवी ने सिसकी भरी विनती की मुत्तुकुमरन ने सिर उठाकर देखा । माधवी के नेत्रों से मोती ढुलक रहे थे।



आठ
 

माधवी की विनती मानकर मुत्तुकुमरत् ने उसके बारे में गोपाल से कुछ नहीं पूछा। पहले तो उसने मन में ठान लिया था कि गोपाल को आड़े हाथों ले और कह दे कि माधवी के हाथों खाना परोसवाना और जूठे बरतन उठवाना मुझे क़तई. पसन्द नहीं। पर माधवी की मिन्नतों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया।