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यह गली बिकाऊ नहीं/43
 


है, इससे उसके दिल को ठेस पहुंचे और इस प्रकार के असमंजस में डाल दे कि सदा- बहार-सा खिला उसका चेहरा ही न मुरझा जाए । इसलिए बातचीत की दिशा मोड़ने के उद्देश्य से उसने अपने प्रस्तावित नाटक की बात उठायीं । इसे माधवी ने बड़े उत्साह से सुना और अंत में हँसते हुए कहा, "इस नाटक में आप ही कथानायक होकर मेरे साथ अभिनय करें तो बड़ा अच्छा हो !"

वह हँसकर बोला, “नाटक तो इसीलिए तैयार किया जा रहा कि गोपाल कथानायक की भूमिका अदा करे । जड़ को ही हिला दें तो फिर काम कैसे चलेगा?"

“सो तो ठीक है ! पर मेरा जी चाहता है कि आप मेरे साथ अभिनय करें। इसमें गलत क्या है ?"

"नहीं, मैं तुम्हारी बात की गहराई में जाकर, और जोर देकर कहना चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ अभिनय मात्र करना चाहती हो, जबकि मैं तो तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ"-कहते-कहते' मुत्तुकुमरन् भावावेश में बह गया और उसने उसकी फूल-जैसी कलाई को अपने हाथ में ले लिया। माधवी की देह में ऐसी फुरहरी-सी दौड़ी । वह मानो उसी क्षण, उसी जगह, उसकी इच्छा पर अपना तन- मन वारने को तैयार हो गयी हो। उसकी भोली-सी चुप्पी और मोहक हँसी में मुत्तुकुमरन् अपना दिल खो गया।

बहुत रात गये तक वे समुद्र-तट पर बैठे रहे।

"खाना ठंडा हो जायेगा, अब चलें!" माधवी ने याद दिलाया तो मुत्तुकुमरन् ने शरारत भरी हँसी के साथ कहा-"यहाँ तो नवरस भोजन परसा है जबकि वहाँ तो षड्रस भोजन ही मिलेगा !"

"संवाद-लेखन के मुकाबले आपकी बातचीत ही अधिक अच्छी है।" "वह कला है ; यह जीवन है। कला से बढ़कर जीवन अधिक सुन्दर और स्वाभाविक होता है !"

बातें करते हुए दोनों वापस लौटे।

माधवी के घर में रात का भोजन मलयाली ढंग से तैयार हुमा था ! नारियल के तेल की महक आ रही थीं। कमरे में फैली चंदन-बत्ती की सुरभि, माधवी की वेणी में लगे बेले. की खुशबू और फिर रसोई की सुगंध ने मिलकर विवाह-गृह का- सा वातावरण पैदा कर दिया था।

डाइनिंग टेबुल सादे किन्तु सुरुचिपूर्ण ढंग से सजी थी। माधवी की माँ ने यह कहकर दोनों को खाने की मेज़ पर बैठा दिया कि खाना वही परोसेंगी।

इधर माधवी की मां परोस रही थीं और उधर मुत्तुकुमरन् आसपास गे चित्रों पर नजर दौड़ा रहा था । एक चित्र ठीक वहाँ लगा था जहाँ आँख उठाते उसपर दृष्टि पड़े बिना नहीं रह सकती । उस चित्र में अभिनेता गोपाल और माधवी हँसते