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यह गली बिकाऊ नहीं/35
 


अकेले गये। माधवी जहाँ खड़ी थी, वहाँ से बेले की खुशबू आ रही थी। उसने उसे जब अपने आलिंगन में लिया था, तब एक-दो फूल ज़मीन पर आ गिरे थे । उसने उन्हें उठा कर सूंघा तो माधवी की याद फिर से महक उठी । खुली खिड़की से ठंडी हवा का झोंका आया तो उसने किवाड़ बंदकर परदा भी खींच लिया। कुछ देर वाद, टेलिफोन की घंटी बजी। उसने लपककर रिसीवर उठाया ।

"मैं, माधवी ! अभी घर आयी !"

"यह कहने के लिए भी फ़ोन...?"

"क्यों ? मेरा बार-बार बोलना पसन्द नहीं ?"

"मैंने ऐसा कहाँ कहा ? मुझसे लड़ने पर क्यों तुली हो ?"

"मैंने इसलिए फ़ोन किया था कि आप फ़िक्र करते होंगे कि मैं घर पहुँची कि नहीं ! और आप इसे लड़ना कहते हैं !

"मान लो कि मैं ही तुमसे लड़ना चाहता हूँ। पर इस तरह फ़ोन पर नहीं:." "फिर कैसे?"

"आमने-सामने और तुम्हारे गाल पर एक चपत लगाकर कहना है कि मेरी बात मानकर चलो !" . "खुशी से लगाइये ! मैं भी आपसे चपत खाने के लिए उत्सुक हूँ 1"

इस प्रकार उनकी बातें बड़ी देर तक जारी रहीं। किसी को बात बंद करने का मन ही नहीं हुआ। मुत्तुकुमरन् को लगा कि करने को अभी भी ढेर-सी बातें हैं और माधवी को लगा कि अब भी बातें अधूरी रह गयी हैं। फिर भी कितनी देर बातें करें? इसलिए दोनों ने फ़ोन रख दिया ।

हर्षोल्लास से पूर्ण उस शुभ घड़ी में मुत्तकुमरन ने नाटक का श्रीगणेश किया। पाड़िय राजा पर दिल लुटाने वाली एक नर्तकी की कहानी का । मन में खाका-सा खींचकर उसने लिखना शुरू किया । प्रथम दृश्य ही बढ़िया और रोचक बने वह इस कोशिश में लगा रहा । उसमें पांडिय राजा अपने अमात्य, राजकवि और परिवार के साथ नृत्य देखते हैं । नर्तकी के मुख से गवाने के लिए एक गाना भी लिखना था। कथानायिका के रूप में नर्तकी की कल्पना करते हुए उसके अंतः चक्षु के सामने माधवी ही हँसती हुई आ खड़ी होती थी। कथानायक की कल्पना तो उसने की ही नहीं। लाख कोशिश करने और मिटाने के बावजूद कथानायक के रूप में वह स्वयं अपने को ही देख पाता था।

अचानक आधी रात के बाद, पता नहीं कितने बजे होंगे-गोपाल ने उसे फ़ोन पर याद किया।

"अरे यार! यहाँ आओ त ! सोमपात्र तैयार है । जरा मस्ती छानेगे।"

"न, भाई ! अभी मैं लिख रहा हूँ। आधे में छोड़ आऊँ तो फिर म्ड नहीं बनेगा!"