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18/यह गली बिकाऊ नहीं
 


"मेरे नाम पर 'गोपाल नाटक मंडली' नाम रखना मुझे मंजूर है । पर एक बात सेनटरी से पूछनी पड़ेगी कि आयकर विभाग से कोई टंटा तो उठ खड़ा नहीं होगा। सच पूछो तो आयकर विभाग के उत्पातों से बचने के लिए ही मैं नाटक मंडली खोलने की बात सोच रहा हूँ। खोलने पर अगर यह लफड़ा घटने के बदले बढ़ जाए तो क्या फायदा?"

"फिर तो यह कहो कि किसी महान कला के पीछे इतनी कलाहीन या घटिया बातों पर भी सोच-विचार करना पड़ता है !"

"कला-वला की बात छोड़ो, यार ! मैं तो यह कहूँगा कि होम करते कहीं हाथ न जल जाये-इस बात का ख्याल करना ही बड़ी कला है !"

"अरे, गोपाल ! मैं तो अभी-अभी ये नयी-नयी बातें सुन ही रहा हूँ !"

करोड़पतियों और अभिनेताओं का सिरमौर हो जाने से गोपाल को मुत्तुकुमरन् की इतनी अंतरंग और लंगोटिया यारी खटकी। उसकी जबान से वह अपने प्रति आदरसूचक बातें सुनना चाहता था । पर उससे कहे तो कैसे कहे ? मुत्तुकुमरन् के गर्व, आत्माभिमान और हठ से वह परिचित था। इसलिए उसे हिम्मत नहीं हुई। मन-ही-मन कुढ़ने के सिवा वह और कुछ नहीं कर सका। मुत्तुकुमरन् के साथ स्त्री की भूमिका करते हुए ‘नाथ ! जैसी आपकी इच्छा !' वाली स्थिति ही अब भी जारी रही । लाख कोशिश करने पर भी उस भ्रम से वह अपने को छुड़ा नहीं पाया ! सामने पैर पर पैर रखे आत्माभिमान और कवि के स्वाभाविक दर्प के साथ गंभीरता से बैठे मुत्तुकुमरन् के सामने करोड़पति गोपाल रत्ती भर भी अपना रोब नहीं जमा पाया।

ड्राइवर ने आकर सूचना दी कि वह लॉज के कमरे को खाली करके लॉज से सामान ले लाया है।

"ले जाकर 'आउट हाउस' में रखो। छोकरे नायर से कहो कि 'आउट हाउस' के बाथरूम में तौलिया-साबुन' आदि रखे और इनके आराम का सारा बंदोबस्त करें।" ड्राइवर हामी भरकर चला तो गोपाल ने उसे फिर से बुलाया, मानो कोई बात याद आ गयी हो।

"सुनो ! 'आउट हाउस' में गरम पानी की कोई व्यवस्था नहीं हो तो 'होम नीड्स' को फोन कर फ़ौरन एक 'गीज़र' लगाने को कहो !" "अभी फ़ोन किये देता हूँ, सर !"

ड्राइबर के जाने के बाद गोपाल ने बात जारी रखी। "उस्ताद ! अपने पहले नाटक के लिए तुम्हें ही कथा-संवाद, गीत आदि सब कुछ रचना होगा ?"

"मुझे ? क्या कह रहे हो यार ? मद्रास में तो कितने ही बड़े-बड़े मशहूर नाटक-