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148 / यह गली बिकाऊ नहीं
 


उतार फेंका तो उसके होंठ मुस्करा उठे! चेहरे का वह निखार देखकर मुत्तुकुमरन् निहाल हो गया।

"जमीन बड़ी ठंडी है। हठ पकड़ोगी तो कल नाहक़ को बुखार चढ़ आयेगा!"

"तो अब मैं क्या करूँ?"

'बहुत दिनों से अभिनय करते-करते तुम भी ऊब गयी हो और मैं भी! अब हमें नया जीवन जीना है।"

मुत्तुकुमरन् ने उठकर उसके हाथ पकड़ें। वह उसके हाथ की वीणा बनकर उसपर झुक पड़ी। उसकी लंबी-चौड़ी छाती और उभरे हुए कंधे, फूल जैसे माधवी के कर-कमलों के घेरे में नहीं आये। मुत्तुकुमरन् उसके कानों में बुदबुदाया, "क्यों, कुछ बोलती क्यों नहीं?"

दुनिया की पहली औरत की भाँति उसके आगे उसकी आँखें लज्जा से अवनत हो गयीं।

"बोलती क्यों नहीं?"

माधवी ने लंबी साँस खींची। उसकी साँँस-साँस प्रेम-लहरी बनकर उसके कानों में गूंज उठी।

"संसारिक्कुम् पाडिल्ला?” उसने अपनी मलयालम भाषा का ज्ञान प्रदर्शित किया तो वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी। फूल जैसे उसके हाथ, उसके कंधे सहला रहे थे। दोनों के बीच फैला मौन मानो संतोष की सीमा छू रहा हो।

उन कंधों पर सर रखकर माधवी उस रात सुख और सुरक्षा की नींद सो पायी।

बड़े तड़के उठकर उसने वहीं स्नान किया। नयी साड़ी पहनकर वह मुत्तुकुमरन्के सामने आयी तो मुत्तुकुमरन् को लगा कि ऊषा-सुन्दरी हँसती हुई उसके सामने प्रकट हो रही हो।

उसी समय गोपाल 'नाइट गाउन' में वहाँ पर आया। माधवी पर उसकी दृष्टि गयी तो उसकी आँखों में घृणा का भाव तिर गया। उससे वह बोल नहीं पाया। उसे भी यह समझते देर नहीं लगी कि वह उसपर बहुत नाराज है। सहसा गोपाल मुत्तुकुमरन् से व्यापारिक ढंग की बातें करने लगा―

"तुमने मेरे बदले क्वालालम्पुर में आठ नाटक और मलाका में तीन नाटक― कुल मिलाकर ग्यारह नाटक खेले हैं।"

"हाँ, खेले हैं। तो क्या...?"

"बात यह है कि पैसे को लेकर भाई-भाई में भी झगड़ा हो जाता है!"

"हो सकता है कि हो! पर गोपाल, आज तुम्हें अचानक हो क्या गया?"

ग्यारह बार नाटक खेलने के लिए पंद्रह हज़ार रुपये और नाटक लिखने के लिए पाँच हज़ार रुपये—कुल मिलाकर बीस हज़ा रुपयों का एक चेक कल ही रात