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142/ यह गली बिकाऊ नहीं
 


चाहा और चुपचाप अंगूठी ले ली । पर चिरंपान से क्वालालम्पुर लौटते ही उसने पहला काम यह किया कि उनकी अंगूठी उन्हीं को लौटा दी।

"यह लीजिए, अब्दुल्ला साहब ! आप कुछ देकर मेरा प्रेम या मेरा स्नेह खरीद नहीं सकते। मैंने आपसे किसी चीज़ की आशा कर नाटक में अभिनय नहीं किया। मुझे इस बात की भी फ़िक्र नहीं कि नाटक के इस ठेके से आपको मुनाफ़ा होता है या घाटा उठाना पड़ रहा है ! मैं अपने मित्र के साथ मलाया आया। उसे तकलीफ़ में पड़ा देखकर, उसकी मदद करना मेरा कर्तव्य था। और किसी गरज से मैंने यह काम नहीं किया । यदि मेरे कर्तव्य के बदले आप कोई उपकार करना चाहते हैं तो मेरा नहीं, गोपाल का कीजिए। चिरंपान में चार लोगों के सामने मैंने आपका अपमान करना उचित नहीं समझा। इसीलिए इसे लेने का नाटक रचा। मुझे अंग्रेजी नहीं आती; पर उदारता आती है। मैं बड़ा स्वाभिमानी हूँ। लेकिन उसके लिए दूसरों का रत्ती भर भी अपमान नहीं करूँगा। मुझे माफ़ कीजिए। किसी भी स्थिति में मुझे इसे वापस करना ही पड़ेगा।"

"मुझे बड़े संकट में डाल रहे हैं, मुत्तुकुमरन् जी आप !"

"नहीं-नहीं, यह बात नहीं !"

अब्दुल्ला ने सिर झुकाये अंगूठी वापस ली और चले गये । औरत हो या मर्द, ऐसे लोगों से वास्ता पड़ने पर, जिन्हें वे किसी भी मूल्य पर खरीद नहीं पाते, उनका सिर ऐसा ही झुक जाया करता था।

उस दिन शाम को गोपाल ने मुत्तुकुमरन को बुला भेजा। मुत्तुकुमरन माउंट बैंटन रोड जाकर उससे मिला।

"बैंठो", अपने बिस्तर के पास की कुर्सी दिखाकर गोपाल ने कहा । मुत्तुकुमरन् बैठा।

"तुमने अब्दुल्ला की दी हुई अंगूठी वापस कर दी क्या?"

"हाँ ! उन्होंने एक बार नहीं, दो-दो बार इसे देना चाहा था ! मैंने दोनों ही बार लौटा दी।"

"ऐसा क्यों किया?"

"इसलिए कि उनका और मेरा कोई संबंध नहीं है । मैं तुम्हारे साथ यहाँ आया हूँ। तुमसे नहीं हो पा रहा तो मैं तुम्हारे बदले भूमिका कर रहा हूँ। वे कौन होते हैं मेरी तारीफ़ करनेवाले या मुझे पुरस्कार देने वाले ?"

"ऐसा तुम्हें नहीं कहना चाहिए ! उस दिन अण्णामल मन्ड्रम में जब नाटक का प्रथम मंचन हुआ था, उन्होंने तुम्हें माला पहनायी । उस दिन तुमने यह कहकर उनका जी दुखाया कि किसी के हाथों माला ग्रहण करते हुए सिर झुकाना पड़ता है। इसलिए मैं इन मालाओं से नफरत करता हूँ। आज हीरे की अंगूठी लौटाकर उनका दिल दुखा रहे हो । इस तरह के व्यवहार से तुम्हारी कौन-सी बड़ाई हो जाती