यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
138/ यह गली बिकाऊ नहीं
 

की कायल हो गयी । ऐसी ही धीरता की वजह से वह उसके प्रति आकर्षित हुई थी और धीरे-धीरे अपना हृदय हार बैठी थी।



उन्नीस
 


उस दिन नाटक के पहले मुत्तुकुमरन् ने जल्दी-जल्दी संवाद और दृश्यों के क्रम को उलट-पलटकर देखा । संवाद उसके थे; निर्देशन उसका था। दर्शकों की गैलरी में बैठकर उसने कुछेक बार सबकुछ देखा भी था । अत: सारे दृश्य उसे याद थे। इसके अलावा स्वयं कवि भी था। परिस्थितियों के अनुसार, नये संवाद गढ़कर वह मंच पर बोल भी सकता था। एक ओर उसे अपने ऊपर विश्वास था और दूसरी ओर माधवी पर ! अच्छी अभिनेत्री होने से उसे विश्वास था कि वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर उठा नहीं रखेगी।

अब्दुल्ला को सबसे बड़ा डर था कि कहीं दर्शकों को इस बात का पता न लग जाए कि गोपाल भूमिका नहीं कर रहा है, तो क्या हो? वे सिर्फ गुल-गपाड़ा ही नहीं मचायेंगे; कुर्सी उठाकर मारेंगे! यह डर एक ओर तो दूसरी ओर यह विश्वास भी था कि मुत्तुकुमरन् गोपाल से भी कहीं अधिक खूबसूरत है और दर्शकों को बाँधे रखने की क्षमता उसके गंभीर व्यक्तित्व में है।

मुत्तुकुमरन् के आत्म-विश्वास ने अविश्वास को स्थान ही नहीं दिया । वह निश्चित होकर नायक की भूमिका करने को तैयार हो गया। दर्शकों को इस बात .. का भान तक नहीं हुआ था कि गोपाल पीकर बाथरूम में गिर पड़ा है और उसके पैर की हड्डी खिसक गयी है। अतः बे बड़ी शांति से परदा उठने की राह देख रहे थे. । अब्दुल्ला इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि मुत्तुकुमरन की गोपाल जैसी 'स्टार वैल्यू' नहीं है । गोपाल ने क्वालालम्पुर में पहले दिन के नाटक में भाग लेकर अपनी और अपनी भूमिका की धाक जमा रखी थी। इसलिए हो सकता है कि दर्शक गोपाल और मुत्तुकुमरन के बीच फ़र्क ढूंढ़ निकालें । अब्दुल्ला का यह शक नाटक प्रारंभ होने ही तक था!

नाटक शुरू होने के बाद दर्शकों का ध्यान इस बात की ओर बँटा ही नहीं। परदा उठते ही मुत्तुकुमरन् मंच पर इस तरह अवतीर्ण हुआ मानो कामदेव ही राजा का वेश धारणकर सभा में विराज रहे हों। पिछले दिन इस दृश्य में गोपाल के प्रवेश पर जैसी तालियां बजीं, उससे कई गुना ज्यादा मुत्तुकुमरन के प्रवेश पर गड़गड़ाती रहीं । माधवी का सौंदर्य पिछली शाम के मुकाबले और भी निखर उठा