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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


भेद नहीं करता तब तक वह आत्मा के निकट पहुँच नहीं सकता। आत्मा के निकट पहुँचने के बाद उसके लिये फिर क्या रह जाता है? अत्यन्त सामान्य कर्म, भूत जीवन के कार्य का अति सामान्य वेग ही शेष रह जाता है, किन्तु यह- वेग भी शुभ कर्मों का ही वेग है। जब तक असद्वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिलकुल दग्ध नहीं हो जाती तब तक कोई व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार तथा प्राप्ति नहीं कर सकता। अतएव जो लोग आत्मा के निकट पहुॅच गये हैं, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है उनके केवल गत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग अवशिष्ट रह जाते है। शरीर मे वास करते हुए भी, एवं अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सभी के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सच्चिन्ता ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी जायँ सभी जगह मानवजाति के लिये महाकल्याण करनेवाली होती है। इस प्रकार के व्यक्ति के द्वारा क्या कोई बुरा कार्य सम्भव है? याद रखिये, 'प्रत्यक्षानुभूति' में और 'केवल मुख से कहने' में बड़ा अन्तर है! अज्ञानी व्यक्ति भी नाना प्रकार की ज्ञान की बातें कहते है। तोता भी इसी तरह बका करते हैं। मुॅह से कहना और बात है और अनुभव करना और बात। दर्शन, मतामत, विचार, शास्त्र, मन्दिर, सम्प्रदाय आदि कोई भी बुरा नहीं है। किन्तु प्रत्यक्षानुभूति होने पर इन सब की आवश्यकता नही रहती। नक्शा अच्छी वस्तु है, परन्तु नक्शे मे अंकित देश स्वयं देख कर आने के बाद यदि उसी नक्शे को फिर से देखो तो कितना अन्तर दिखाई पड़ेगा! अतएव जिसने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है उसे फिर