है। चाहे हम कहें कि वही समुइय जगत् है, या कहें -- उसके लियें
जगत् का अस्तित्व ही नहीं है। तब उसके लिये लिंग देश आदि छोटे
छोटे भाव किस प्रकार सम्भव हैं? यह कैसे कहेगा -- मैं पुरुष हूँ, मैं
स्त्री हूॅ, मैं बालक हूॅ? क्या यह सब मिथ्या नहीं है? उसने जान
लिया है कि यह सब मिथ्या है। तब वह किस तरह कहेगा -- यह
पुरुष का अधिकार है, यह स्त्री का अधिकार है? किसी का कुछ
अधिकार नहीं है, किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष भी नहीं
है, स्त्री भी नहीं है, आत्मा लिंगहीन है, निन्यशुद्ध। मैं पुरुष या स्त्री
हूँ यह कहना और मैं अमुक देशवासी हूॅ यह कहना केवल मिथ्यावाद
है। सभी देश मेरे हैं, समस्त जगत् मेरा है; कारण, समस्त जगत् के
द्वारा मैंने मानो अपने को ढक लिया है, समस्त जगत् ही मानो मेरा
शरीर हो गया है। किन्तु हम देखते हैं कि बहुत से लोग विचार
करते समय ये सब बाते कह कर काम के समय सभी प्रकार के
अपवित्र काम करते हैं; और यदि हम उनसे पूछे कि 'क्यों तुम ऐसा
कर रहे हो' तो वे उत्तर देंगे, 'यह तुम्हारी बुद्धि का ही भ्रम है।
हमारे द्वारा कोई अन्याय होना असम्भव है।' इन सब लोगों की
परीक्षा करने का क्या उपाय है? उपाय यही है कि --
यद्यपि सत् और असत् दोनो एक ही आत्मा के आंशिक
प्रकाश मात्र हैं तथापि असद्भाव ही आत्मा का वाह्य आवरण
है, और 'सत्' भाव मनुष्य के वास्तविक स्वरूप आत्मा के अपेक्षाकृत
अधिक निकट का आवरण है। जब तक मनुष्य असत् का स्तर
भेद नहीं कर लेता तब तक वह सत् के स्तर पर नहीं पहुँच
सकता; और जब तक वह सत् और असत् दोनों के स्तर को