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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


सुख भी चला जाता है। पृथिवी उड़ जाती है और उसके साथ साथ स्वर्ग भी उड़ जाता है; शरीर चला जाता है, उसके साथ मन भी चला जाता है। उस व्यक्ति की दृष्टि मे यह समस्त जगत् ही मानों अव्यक्त भाव धारण कर लेता है। यह जो शक्तियों का निरन्तर संग्राम, निरन्तर संघर्ष है यह सब एकदम स्थगित हो जाता है, और जो शक्ति और भूत रूप में, प्रकृति की विभिन्न चेष्टाओ के रूप मे प्रकाशित हो रहा था, जो स्वयं प्रकृति रूप मे प्रकाशित हो रहा था, जो स्वर्ग, पृथिवी, उद्भिद, पशु, मनुष्य, देवता आदि के रूप मे प्रकट हो रहा था, वही समस्त एक अनन्त, अच्छेद्य, अपरि णामी सत्ता के रूप में परिणत हो जाता है; और ज्ञानी पुरुष देख पाते है कि वे उत्त सत्ता से अभिन्न है। "जिस प्रकार आकाश मे नाना वर्ण के मेघ आकर कुछ देर खेल फिर अन्तर्हित हो जाते हैं," उसी प्रकार इस आत्मा के सम्मुख पृथ्वी, स्वर्ग, चन्द्रलोक, देवता, सुख, दुःख आदि आते है; किन्तु वे उसी अनन्त, अपरिणामी, नीलवर्ण आकाश को हमारे सम्मुख छोड़कर अन्तर्हित हो जाते हैं। आकाश का कभी भी परिणाम नहीं होता, परिणाम केवल मेघ का ही होता है। भ्रम के कारण ही हम सोचते है कि हम अपवित्र है, हम सान्त है। हम जगत् से पृथक् हैं। प्रकृत मनुष्य यही एक अखण्ड सत्ता रूप है।

यहाँ पर दो प्रश्न उठते है। पहला यह है कि "क्या अद्वैत ज्ञान की उपलब्धि सम्भव है? अब तक तो सिद्धान्त की बात हुई; क्या उसकी अपरोक्षानुभूति सम्भव है?" हाॅ बिलकुल सम्भव है। ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय भी जीवित है जिनका अज्ञान