बाहर पाप देख पाता है, किन्तु साधु मनुष्य को उसका बोध नहीं
होता। अत्यन्त असाधु पुरुष इस जगत् को नरक स्वरूप देखते है;
मध्यम श्रेणी के लोग इसे स्वर्गस्वरूप देखते है; और जो पूर्ण सिद्ध
पुरुष है वे इसे साक्षात् भगवान के रूप में ही देखते हैं। बस, तभी
उनके नेत्रों का आवरण हट जाता है, और तब वे ही व्यक्ति
पवित्र और शुद्ध होकर देख पाते है कि उनकी दृष्टि बिलकुल बदल
गई है। जो दुःस्वप्न उन्हे लाखों वर्षों से पीड़ित कर रहे थे
वे सब एकदम समाप्त हो जाते है, और जो अपने को इतने दिन
मनुष्य, देवता, दानव, आदि समझ रहे थे, जो अपने को कभी
ऊपर, कभी नीचे, कभी पृथ्वी पर, कभी स्वर्ग मे अथवा कभी,
किसी और स्थान में स्थित समझते थे वे देख पाते है--वे वास्तव मे
सर्वव्यापी है, वे काल के अधीन नहीं हैं, काल उनके अधीन है,
समस्त स्वर्ग उनके भीतर है, वे स्वयं किसी स्वर्ग मे अवस्थित नहीं
हैं--और मनुष्य ने किसी काल के जिस किसी देवता की उपासना
की है वे सब उसके भीतर ही है, वह किसी देवता के अन्दर
अवस्थित नहीं है; वह देव, असुर, मानुष, पशु, उद्भिद, प्रस्तर आदि
का सृष्टिकर्ता है, और उस समय मनुष्य का स्वरूप उसके निकट
इस जगत् से श्रेष्ठतर होकर, स्वर्ग से भी श्रेष्ठतर और सर्वव्यापी
आकाश से भी अधिक सर्वव्यापी रूप में प्रकाशित होता है। उसी
समय मनुष्य निर्भय हो जाता है, उसी समय मनुष्य मुक्त हो जाता
है। उस समय सब भ्रान्ति दूर हो जाती है, सभी दुःख दूर हो
जाते हैं, सभी भय एक बार में ही चिर काल के लिये समाप्त हो
जाते हैं। तब जन्म न जाने कहाँ चला जाता है और उसके साथ
मृत्यु भी चली जाती है; दुःख भी चला जाता है और उसके साथ
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