जब कार्य शेष है इसका है, तब जाता है तो जाए;
प्रारब्ध कर्म फिर इसको अब चाहे जहाँ बहाए;
कोई आदर से इसको मालाएँ पहनाएगा,
कोई निज घृणा जताकर पैरों से ठुकराएगा;
तुम चित्त शान्ति मत तजना, आनन्द-निरत नित रहना;
यश कहाँ, कहाँ अपयश है―इस धारा में मत बहना।
जब निन्दक और प्रशंसक, जब निन्दित और प्रशंसित,
एकात्म एक ही हैं सब, तब कौन प्रशंसित निन्दित?
यह ऐक्य-ज्ञान हृदयंगम करके हे संन्यासीवर,
निर्भय आनन्दित उर से गाओ यह गान मनोहर―
ॐ तत् सत् ॐ
करते निवास जिस उर में मद काम लोभ औ' मत्सर,
उसमे न कभी हो सकता आलोकित सत्य-प्रभाकर;
भार्यत्व कामिनी में जो देखा करता कामुक बन,
वह पूर्ण नहीं हो सकता, उसका न छूटता बन्धन;
लोलुपता है जिस नर की स्वल्पातिस्त्रल्प भी धन में,
वह मुक्त नहीं हो सकता रहता अपार बन्धन में; .
जंजीर क्रोध की जिसको रखती है सदा जकड़ कर,
वह पार नहीं कर सकता दुस्तर माया का सागर।
इन सभी वासनाओं का अतएव त्याग तुम कर दो,,
सानन्द वायुमण्डल को बस एक गूँज से भर दो―
ॐ तत् सत् ॐ
सुख हेतु न गेह बनाओ, किस घर में अमा सकोगे?
तुम हो महान्, फिर कैसे पिजँड़े के विहग बनोगे?