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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

को समझ नहीं सके और अपनी अपनी समझ से उल्टे सीधे उत्तर देने लगे। तब एक बुद्धिमती बालिका ने उसका उत्तर दे दिया। वह बोली― "पृथ्वी गिरेगी किस पर?" यह प्रश्न ही तो भूल है। जगत् में ऊँचा नीचा तो कुछ है नहीं। ऊँचा नीचा तो केवल आपेक्षिक ज्ञान मात्र है। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। जन्म-मृत्यु का प्रश्न ही भूल है। कौन जाता है, कौन आता है? तुम कहाँ नहीं हो? वह स्वर्ग कहाँ है जहाँ तुम पहले से ही नही हो? मनुष्य का आत्मा सर्वव्यापी है। तुम कहाँ जाओगे? कहाँ नहीं जाओगे? आत्मा तो सब जगह है। अतएव पूर्ण रूप से जीवन्मुक्त व्यक्ति के लिये यह बालकों का सा स्वप्न, जन्म-मृत्यु के सम्बन्ध में यह बालकों का सा भ्रम, स्वर्ग-नरक आदि का स्वप्न―सभी कुछ एकदम अन्तर्हित हो जाता है, जिनके भीतर कुछ अज्ञान अवशिष्ट है उनको वह नाना प्रकार के ब्रह्मलोक पर्यन्त दृश्य दिखा कर अन्तर्हित हो जाता है और अज्ञानियो के लिये वह रह जाता है।

समस्त जगत्, स्वर्ग जायँगे, मरेगे, पैदा होंगे—इन सब बातों पर विश्वास क्यों करता है? मैं एक पुस्तवा पढ़ रहा हूँ, उसके पृष्ठ पर पृष्ठ पढ़े जा रहे है और उलटे जा रहे हैं। एक पृष्ठ आया, उलट दिया गया। परिणाम किसका हो रहा है? कौन आ जा रहा है? मैं नहीं, केवल इस पुस्तक के पन्ने उलटे जारहे है। समस्त प्रकृति आत्मा के सम्मुख रक्खी एक पुस्तक के समान है। उसका एक के बाद दूसरा अध्याय पढ़ा जा रहा है, उलटा जा रहा है, और प्रति वार एक नूतन दृश्य सामने आ रहा है। पढ़ने के बाद इसे भी उलट दिया गया। फिर एक नया अध्याय सामने आया; किन्तु आत्मा जो