पहले सूर्य में था, हो सकता है कि आज वह मनुष्य के भीतर आगया हो, कल शायद वह पशु के भीतर और परसो शायद किसी उद्भिद के भीतर प्रवेश कर जायगा। आना जाना निरन्तर हो रहा है। यह सब एक ही अखण्ड जड़राशि है―केवल नामरूप से पृथक् पृथक् है। उसके एक बिन्दु का नाम सूर्य है, एक का नाम चन्द्र, एक का तारा, एक का मनुष्य, एक का पशु, एक का उद्भिद, इसी प्रकार और भी, और ये जो भिन्न भिन्न नाम हैं ये भ्रमात्मक हैं; कारण, इस जड़ राशि का क्रमागत परिवर्तन हो रहा है। इसी जगत् को एक दूसरे भाव से देखने पर यह एक विशाल चिन्ता-समुद्र के समान प्रतीत होगा जिसका एक एक बिन्दु एक एक मन है। तुम एक मन हो, मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक एक मन है। और इसी जगत् को ज्ञान की दृष्टि से देखने पर, अर्थात् जब आँखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब मन शुद्ध हो जाता है तब वही नित्य शुद्ध, अपरिणामी, अविनाशी, अखण्ड पूर्ण स्वरूप पुरुप के रूप में प्रतीत होगा। तब द्वैतवादियो का परलोकवाद―मनुष्य मरने के बाद स्वर्ग जाता है अथवा अमुक लोक में जाता है, असत् लोक में भूत हो जाता है, उस के बाद पशु होता है ये सब बाते क्या हुई? अद्वैतवादी कहते हैं―न कोई आता है न कोई जाता है—तुम्हारे लिये जाना आना किस तरह सम्भव है? तुम तो अनन्त स्वरूप हो; तुम्हे जाने के लिये स्थान कहाँ है?
किसी स्कूल में छोटे बच्चों की परीक्षा हो रही थी। परीक्षक इन छोटे छोटे बच्चो से कठिन कठिन प्रश्न कर रहे थे। उन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न था कि "पृथ्वी गिरती क्यो नहीं?" प्रायः सभी वालक इस प्रश्न