भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो केवल नानारूप उपाधिवश अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरड्गो की ओर देखो; एक भी तरड् समुद्र से पृथक् नहीं है। तब फिर तरड्ग पृथक् क्यो प्रतीत होती है? नामरूप ने—तरड्ग की आकृति और हमने जो इसे तरड्ग नाम दे दिया है उसी ने उसे समुद्र से पृथक् कर दिया है। नामरूप के नष्ट हो जाने या चले जाने पर वह जो समुद्र था वही रह जाता है। तरंग और समुद्र के बीच कौन प्रभेद कर सकता है? अतएव यह समुदय जगत् एक स्वरूप हुआ। जितना भी पार्थक्य है वह सब नामरूप के ही कारण है। जिस प्रकार सूर्य लाखों जलकणो पर प्रतिबिम्बित होकर प्रत्येक जलकण के ऊपर सूर्य की एक सम्पूर्ण प्रति- कृति की सृष्टि कर देता है उसी प्रकार वही एक आत्मा, वही एक सत्ता विभिन्न वस्तुओ में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप में दिखाई पड़ता है। किन्तु वास्तव में वह एक है। वास्तव में 'मैं' अथवा 'तुम' नामक कुछ नहीं है―सब एक है। चाहे कहो―सभी मैं हूँ, या कहो―सभी तुम हो। किन्तु यह द्वैतज्ञान बिलकुल मिथ्या है, और समुदय जगत् इसी द्वैतज्ञान का फल है। जब विवेक उदय होने पर मनुष्य देख पाता है कि दो वस्तुएँ नहीं है, एक ही वस्तु है, तब उसे बोध होता है कि वही स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्ड स्वरूप हो गया है। मैं ही यह परिवर्तनशील जगत् हूँ, और मैं ही अपरिणामी, निर्गुण, नित्यपूर्ण नित्यानन्दमय हूँ।
अतएव नित्यशुद्ध, नित्य, पूर्ण अपरिणामी अपरिवर्तनीय एक आत्मा है; उसका परिणाम कभी नहीं होता, और ये सब विभिन्न परिणाम उसी एकमात्र आत्मा में ही प्रतीत होते हैं। उसके ऊपर नामरूप