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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


ग्रहण करना पड़ता है। इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है। अच्छा बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्कार्य करने पर स्वर्ग मे जाकर देवता हो जाता है। इस अवस्था मे वह कोई नया कर्म नहीं करता, केवल पृथ्वी पर किये हुये अपने सत्कर्मों का फल भोग करता है। और जब ये सत्कर्म समाप्त हो जाते है उसी समय जो असत् या बुरे कर्म उसने पृथ्वी पर किये थे उनका सञ्चित फल वेग के साथ उसके ऊपर आ जाता है और उसे वहाँ से फिर एक बार पृथ्वी पर घसीट लाता है। इसी प्रकार जो भूत हो जाते है वे उसी अवस्था मे कोई नूतन कर्म न करते हुए केवल भूत कर्म का फल भोग करते रहते है; उसके बाद पशुजन्म ग्रहण कर वहाॅ भी कोई नया कर्म नहीं करते। उसके बाद वे भी फिर मनुष्य हो जाते है।

मान लो कि एक व्यक्ति ने जीवन भर अनेक बुरे काम किए किन्तु एक बहुत अच्छा काम भी किया। ऐसी दशा मे उस सत्कार्य का फल उसी क्षण प्रकाशित हो जायगा, और इस सत्कार्य का फल शेष होते ही बुरे कार्यों का फल भी उसे मिलेगा। जिन सब लोगो ने अनेक अच्छे अच्छे बड़े बड़े कार्य किये है किन्तु उनके समस्त जीवन की गति अच्छी नहीं रही, वे सब देवता हो जायॅगे। देवदेह से सम्पन्न होकर देवताओं की शक्ति का कुछ काल तक सम्भोग करके उन्हे फिर मनुष्य होना पड़ेगा। जिस समय सत्कर्मों की शक्ति क्षय हो जायगी उस समय फिर वही पुरातन असत्कार्यों का फल होने लगेगा। जो अत्यन्त बुरे कर्म करते है उन्हे भूतयोनि, दावनयोनि मे जाना पड़ेगा, और जब उनके बुरे कर्मों का फल समाप्त हो जायगा उस समय उनका जितना भी सत्कर्म शेष है उसके फल से वे फिर