और आप बड़े मनोयोग के साथ मेरी बात सुन रहे हैं, इसी समय
यहाँ एक घण्टा बजता है; शायद आप उस घण्टे की ध्वनि को नहीं
सुन सकेगे। यह शब्द-तरंग आपके कान में पहुॅच कर कान के पर्दे
मे लगी, स्नायुओ के द्वारा यह संवाद मस्तिष्क मे पहुॅचा, किन्तु फिर
भी आप उसे क्यों नहीं सुन सके? यदि मस्तिष्क मे संवाद वहन
करने तक ही समस्त श्रवण-प्रक्रिया सम्पूर्ण हो जाती, तो फिर तुम
क्यो नही सुन पा सके? अतएव मालूम हुआ कि सुनने की प्रक्रिया
के लिये और भी कुछ आवश्यक है--मन इन्द्रिय से युक्त नहीं था।
जिस समय मन इन्द्रियों से पृथक रहता है उस समय इन्द्रियाॅ उसके
पास जो कुछ भी संवाद लायेगी मन उनको ग्रहण नहीं करेगा। जब
मन उनसे युक्त रहता है तभी वह किसी संवाद को ग्रहण करने मे
समर्थ होता है। किन्तु इससे भी विषयानुभूति, पूर्ण नही होगी।
बाहरी यन्त्र संवाद वहन कर सकता है, इन्द्रियगण उसे भीतर ले जा
सकती है और मन इन्द्रियों से संयुक्त रह सकता है, फिर भी विषया-
नुभूति पूर्ण नहीं होगी। एक वस्तु और आवश्यक है। भीतर से प्रति-
क्रिया आवश्यक है। प्रतिक्रिया से ही ज्ञान उत्पन्न होगा। बाहर की
वस्तु ने मानों मेरे अन्दर संवाद-प्रवाह प्रेरित किया। मेरे मन ने उसे
लेकर बुद्धि के निकट अर्पण कर दिया, बुद्धि ने पहले से बने हुये
मन के संस्कारो के अनुसार उसे सजाया और बाहर की ओर प्रति-
क्रिया-प्रवाह की प्रेरणा की, इसी प्रतिक्रिया के साथ साथ विषयानुभूति
होती है। मन की जो शक्ति इस प्रतिक्रिया की प्रेरणा करती है उसे
'बुद्धि' कहते है। किन्तु फिर भी अभी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई।
मान लीजिये, एक चित्रक्षेपक यन्त्र है और एक पर्दा है। मै
इस पर्दे पर एक चित्र डालने की चेष्टा कर रहा हूॅ। तो मै क्या
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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप