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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


गण, पृथ्वी, मनुष्य, जन्तु, उद्भिद् और नाना शक्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। अतएव हिन्दुओ के मत से सब प्रकार की शक्ति प्राण का और सब प्रकार के दृश्य पदार्थ आकाश का विभिन्न स्वरूप मात्र हैं; कल्पान्त मे सभी घन पदार्थ पिघल जायॅगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायगा। वह फिर तेज रूप धारण करेगा। अन्त मे सब कुछ जिसमे से उत्पन्न हुआ था उसी आकाश मे विलीन हो जायगा। और आकर्षण, विकर्षण, गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे धीरे मूल प्राण मे परिणत हो जायँगी। उसके बाद जब तक फिर कल्परम्भ नही होता तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था मे रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह फिर जाग कर नाना रूपों को प्रकाशित करेगा और कल्पान्त मे सभी कुछ लय हो जायगा। इसी प्रकार वह आता है, जाता है, एक वार पीछे और एक बार आगे--मानो झूल रहा है। आधुनिक विज्ञान की भाषा मे कहेगे कि एक समय वह स्थितिशील (Static) रहता है, फिर गतिशील (Dynamic) हो जाता है; एक समय प्रसुप्त रहता है और फिर क्रियाशील हो जाता है। इसी रूप से अनन्त काल से चला आरहा है।

किन्तु यह विश्लेषण भी अधूरा ही रहा। आधुनिक पदार्थ- विज्ञान ने भी यही तक जान पाया है। इसके ऊपर भौतिक विज्ञान की गति नहीं है। किन्तु इस अनुसन्धान का यहीं अन्त नहीं हो जाता। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया जिसे जान कर सब कुछ जाना जा सके। हमने समस्त जगत् को भूत और शक्ति मे अथवा प्राचीन भारतीय दार्शनिको के शब्दो मे आकाश