मानवजाति के समस्त सत्कर्मों की मूल अभिसन्धि है—मनुष्य, जन्तु आदि सभी के प्रति दया। किन्तु ये सब 'मैं ही जगत् हूँ, यह जगत् एक अखण्ड स्वरूप है,' इसी सनातन सत्य के विभिन्न भाव मात्र है। यदि ऐसा नहीं हो तो दूसरो का हित करने में क्या युक्ति है? मैं क्यों दूसरों का उपकार करूँ? परोपकार करने को मुझे कौन बाध्य करता है? सब जगह समदर्शन से उत्पन्न जो सहानभूति का भाव है उसी से तो यह बात हुई। अत्यन्त कठोर अन्तःकरण भी कभी- कभी दूसरो के प्रति सहानुभूति से भर जाता है। और तो क्या, जो व्यक्ति 'यह आपातप्रतीयमान (Apparent) 'अहं' वास्तव में भ्रम- मात्र है,' 'इस भ्रमात्मक 'अहं' में आसक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है'―ये सब बाते सुनकर भयभीत हो जाता है―वही व्यक्ति तुमसे कहेगा कि सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सब नीतियों की भित्ति है। किन्तु पूर्ण आत्मत्याग क्या है? सम्पूर्ण आत्मत्याग हो जाने पर शेष क्या रहेगा? आत्मत्याग का अर्थ है इसी आपातप्रतीयमान 'अहं' का त्याग, सब प्रकार की स्वार्थपरता का त्याग। यह अहंकार और ममता पूर्व कुसंस्कारों के फल स्वरूप है और जितना ही इस 'अहं' का त्याग होता जाता है उतना ही आत्मा अपने नित्य स्वरूप में, अपनी पूर्ण महिमा में प्रकाशित होता है। यही वास्तविक आत्मत्याग है, यही समस्त नैतिक शिक्षा की भित्ति है, केन्द्र है। मनुष्य इसको जाने या न जाने, समस्त जगत् धीरे-धीरे इसी दिशा में जा रहा है, अल्पाधिक परिमाण में इसीका अभ्यास कर रहा है। केवल, अधिकांश लोग इसे अज्ञात भाव से ही कर रहे है। वे इसे ज्ञात भाव से करे। यह प्रकृत आत्मा नहीं है यह समझ कर वे इस त्याग-यज्ञ को करे। यह व्यवहारिक जीव ससीम जगत् के भीतर आबद्ध है। इस समय जिसको
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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप