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ज्ञानयोग

में हम जीवित है, और जिस समय हम इस क्षुद्र जीवन में अपने को वद्ध करके रखते है उसी मुहूर्त में मृत्यु है एवं इसी कारण हमें मृत्युभय होता है। मृत्युभय को तभी जीता जा सकता है जब मनुष्य यह समझले कि जब तक जगत् में एक भी जीवन शेष है तब तक वह भी जीवित है। इस प्रकार के व्यक्तियो को ऐसी उपलब्धि होती है कि, "मैं सब वस्तुओ में, सब देहो में वर्तमान हूँ। सब जन्तुओं में मैं वर्तमान हूँ। मैं ही यह जगत् हूँ, सम्पूर्ण जगत् ही मेरा शरीर है। जितने दिन एक भी परमाणु शेष है उतने दिन मेरी मृत्यु की सम्भावना ही क्या है? कौन कहता है कि मेरी मृत्यु होगी?"-ऐसा ज्ञान हो जाने पर ऐसे लोग निर्भय हो जाते हैं, ऐसे ही समय निर्भीक अवस्था आ जाती है। नियतपरिणामशील छोटी-छोटी वस्तुओ में अविनाशत्व है यह कहना मूर्खता है। एक प्राचीन भारतीय दार्शनिक ने कहा है कि आत्मा अनन्त है इसलिये आत्मा ही 'अहं' हो सकता है। अनन्त का भाग नहीं किया जा सकता, अनन्त को खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता। यही एक अविभक्त, समष्टिरूप अनन्त आत्मा है, वही मनुष्य का यथार्थ 'मैं' है, वही 'प्रकृत मनुष्य' है। मनुष्य के नाम से जिसको हम जानते है वह केवल इस 'मैं' को व्यक्त जगत् में प्रकाशित करने की चेष्टा का फल मात्र है; और आत्मा में कभी 'क्रमविकास' नहीं रह सकता। यह जो सब परिवर्तन हो रहा है, बुरा-भला हो रहा है, पशु मनुष्य हो रहा है, यह सब कभी आत्मा में नहीं होता। कल्पना करो कि एक पर्दा मेरे सामने है और उसमे एक छोटा सा छिद्र है; इसके भीतर से मैं केवल कुछ चेहरे देख पा रहा हूँ। यह छिद्र जितना बड़ा होता जाता है उतना ही अधिक सामने का दृश्य मेरे सम्मुख प्रकाशित होता जाता है