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ज्ञानयोग

ही देश-काल-निमित्त से अतीत है। और जब वह देश-काल-निमित्त से अतीत है तो अवश्य ही अनन्त होगा। अब इस बार हिन्दूदर्शन का उच्चतम विचार आता है। अनन्त कभी दो नहीं हो सकते। यदि आत्मा अनन्त है तो केवल एक ही आत्मा हो सकता है, और यह जो अनेक आत्माओ की धारणा है―तुम्हारा एक आत्मा, मेरा दूसरा आत्मा—यह सत्य नहीं है। अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप एक ही है, अनन्त और सर्वव्यापी, और यह व्यवहारिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरूप का केवल एक सीमाबद्ध भाव है। इसी हिसाब से पूर्वोक्त पौराणिक तत्व भी सत्य हो सकते है कि व्यवहारिक जीव, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यो न हो जाय फिर भी मनुष्य के इस अतीन्द्रिय प्रकृत स्वरूप का अस्फुट प्रतिबिम्बमात्र ही है। अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप―आत्मा― जो कार्य-कारण से अतीत है―जो देश-काल से अतीत है―अवश्य ही मुक्त स्वभाव है―वह कभी बद्ध नहीं था, उसको बद्ध करने की शक्ति किसीमे नहीं थी। यह व्यवहारिक जीव, यह प्रतिबिम्ब देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध है, इसलिये यह बद्ध है। अथवा किन्ही-किन्ही दार्शनिको की भाषा में यो कहेगे कि "मालूम होता है कि जैसे वह बद्ध हो गया है, परन्तु वास्तव में वह बद्ध नहीं है।" हमारी आत्मा के भीतर यथार्थ सत्य केवल इतना ही है―यही सर्वव्यापी, अनन्त चैतन्यस्वभाव है। हम स्वभाव से ही ऐसे है―चेष्टा करके हमे ऐसा बनने की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक आत्मा ही अनन्त है इसलिये जन्म और मृत्यु का प्रश्न उठ ही नहीं सकता। कुछ बालक परीक्षा दे रहे थे। परीक्षक कठिन कठिन प्रश्न पूछ रहे थे। उनमे यह भी प्रश्न था—'पृथिवी गिरती क्यों नहीं है?'वे मध्याकर्षण के नियम आदि सम्बन्धी उत्तर की आशा कर रहे थे। अधिकांश बालक-बालिक