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ज्ञानयोग
१. संन्यासी का गीत
छेड़ो संन्यासी, छेड़ो, छेड़ो वह तान मनोहर,
गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर-
सुगंभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ है,
भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रदेश जहाँ है-
जो संगीत-ध्वनि-लहरी अतिशय प्रशान्त लहराती
जो भेद जगत् कोलाहल नभ-अवनी में छा जाती,
धन-लोभ, यशोलिप्सा या दुर्दान्त काम की माया
सब विधि असमर्थ हुई है छूने में जिसकी छाया,
सत्-चित्-आनन्द-त्रिवेणी करती है जिसको पावन,
जिसमें करके अवगाहन होते कृतकृत्य सुधीजन-
छेड़ो छेड़ो, हैँ छेड़ो वह तान दिव्य लोकोत्तर,
गाओ, गाओ संन्यासी, गाओ वह गायन सुन्दर-
ॐ तत् सत् ॐ
तोड़ो ज़ंजीरे जिनसे जकड़े हैं पैर तुम्हारे-
वे सोने की है तो क्या कसने में तुमको हार?
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