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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

सभी स्थान जब उस जल में डूब जाएँगे तब उस जल में तुम्हे मेरा एक सीग (कॉटा) दिखेगा, तुम नौका को उससे बाँध देना। उसके बाद जल घट जाने पर नौका से उतर कर प्रजावृद्धि करना।' इसी प्रकार भगवान के कथनानुसार जलप्रलय हुआ और मनु ने अपने परिवार सहित प्रत्येक जन्तु के एक एक जोड़े और उद्भिदो के बीज की प्रलय से रक्षा की, और प्रलय समाप्त हो जाने पर इस नौका से उतर कर वे प्रजा उत्पन्न करने में लग गये―और हम लोग मनु के वंशज होने से मानव कहलाने लगे (मन् धातु से मनु बनता है; मन् धातु का अर्थ है मनन अर्थात् चिन्ता करना)। अब देखो, मनुष्य की भाषा उस आभ्यन्तरीण सत्य को प्रकाशित करने की चेष्टा मात्र है। मेरा स्थिर विश्वास है कि यह सब कथा और कुछ नहीं, मानो एक छोटा बालक, जिसकी एकमात्र भाषा अस्फुट अस्पष्ट शब्दराशि ही है, अपनी तोतली भाषा में एक महान् गम्भीर दार्शनिक सत्य को प्रकाशित करने की चेष्टा कर रहा है―केवल उसके पास इसको प्रकाशित करने के लिये कोई उपयुक्त इन्द्रिय अथवा अन्य कोई उपाय नहीं है। उच्चतम दार्शनिक और शिशु की भाषा में प्रकार का कोई भेद नहीं है, भेद है केवल मात्रा (Degree) का। आजकल की विशुद्ध, प्रणालीवद्ध, गणित के समान कटी छँटी भाषा और प्राचीन ऋषियो की अस्फुट रहस्यमय पौराणिक भाषा में अन्तर केवल मात्रा की अधिकता और अल्पता का है। इन सब कथाओ के पीछे एक महान् सत्य छिपा है जिसे प्रकाशित करने की प्राचीन लोगो ने चेष्टा की है। बहुधा इन सब प्राचीन पौराणिक कथाओ के भीतर ही महामूल्य सत्य रहता है, और दुख के साथ कहना पड़ता है कि आधुनिक लोगो की चटपटी भाषा में बहुधा