भूत, भविष्यत् या वर्तमान के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं जान सकते। ―कारण कि जो व्यक्ति भूत भविष्य को अस्वीकार कर केवल वर्तमान को स्वीकार करते हुए उसी में अपनी दृष्टि को सीमित रखना चाहता है वय केवल बातूनी है; क्योकि ऐसा होने पर वह माता-पिता को स्वीकार न करते हुए भी सन्तान के अस्तित्व को स्वीकार करेगा! और ऐसा कहना इस अवस्था में युक्तिसंगत ही होगा; क्योकि भूत भविष्य को अस्वीकार करने का अर्थ है वर्तमान को भी अस्वीकार करना। यही एक भाव―यही शून्यवादियो का मत है। किन्तु मैने ऐसा मनुष्य आज तक नहीं देखा जो एक मुहूर्त के लिये भी शून्यवादी हो सके;― मुख से कहना तो अवश्य ही बहुत सरल है।
दूसरा उत्तर यह है कि इस प्रश्न के वास्तविक उत्तर की खोज करो―सत्य की खोज करो―इस नित्य परिवर्तनशील नश्वर जगत् में क्या सत्य है इसकी खोज करो। यह शरीर जो कुछ भौतिक अणुओ का समष्टि मात्र है, क्या इसके अन्दर कुछ सत्य भी है? देखा जाता है कि मानवजीवन के इतिहास में सर्वदा ही इस तत्व का अन्वेषण किया गया है। हम देखते है कि अति प्राचीन काल में ही मनुष्य के मन में इस तत्व का अस्पष्ट प्रकाश उद्भासित हो गया था। हम देखते हैं कि उसी समय से मनुष्य ने स्थूल देह से अतीत एक अन्य देह का भी पता पा लिया है—यह देह अधिकांश इसी स्थूल देह के समान अवश्य है किन्तु पूर्ण रूप से नहीं; यह स्थूल देह से श्रेष्ठ हे― शरीर का नाश हो जाने पर भी इसका नाश नहीं होगा। हम ऋग्वेद के एक सूक्त में किसी मृत शरीर का दाह करने वाले अग्निदेव के प्रति कहा हुआ यह स्तब देखते हैं,―"हे अग्नि!