३. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप
(लन्दन में दिया हुआ भाषण)
पञ्चेन्द्रियग्राह्य जगत् में मनुष्य इतना अधिक आसक्त हो जाता है कि वह उसे सहज में ही त्याग करना नहीं चाहता। किन्तु वह इस बाह्य जगत् को चाहे कितना ही सत्य या साररूप क्यों न समझे प्रत्येक व्यक्ति तथा जाति के जीवन में एक समय ऐसा आता है कि जब उसे अनिच्छा से भी जिज्ञासा करनी होती है, कि क्या यह जगत् सत्य है? जिन व्यक्तियों को अपनी इन्द्रियों की गवाही में अविश्वास करने का तनिक भी समय नहीं मिलता, जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण किसी न किसी प्रकार के विषयभोग में वीतता है, मृत्यु उनके भी सिरहाने आकर खड़ी हो जाती है और विवश होकर उन्हे भी कहना पड़ता है―क्या यह जगत् सत्य है? इसी एक प्रश्न में धर्म का आरम्भ होता है और इसी के उत्तर में धर्म की इति भी हो जाती है। इतना ही क्यो, सुदूर अतीत काल में जिसका निश्चित इतिहास भी अब नहीं मिलता, उसी रहस्यमय पौराणिक युग में भी, सभ्यता के उस अस्फुट उषाकाल में भी, हम देखते है कि यही एक प्रश्न उस समय भी पूछा गया है―क्या यह जगत् सत्य है?
कवित्वमय कठोपनिषद् के प्रारम्भ में हम यह प्रश्न देखते है, मनुष्य के मरने पर, कोई कोई लोग कहते है कि उसका अस्तित्व