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ज्ञानयोग

आया? प्रकृति ने तो दिया नहीं। प्रकृति कहती है―'जाओ, वन में जाकर बसो।' मनुष्य कहता है―"मैं मकान बनाऊँगा, प्रकृति के साथ युद्ध करूँगा।" और वह यही कर रहा है। मानव जाति का इतिहास प्राकृतिक नियमो के साथ युद्ध का इतिहास है और मनुष्य की ही अन्त में प्रकृति पर विजय होती है। अन्तर्जगत् में आकर देखो, वहाँ भी यही युद्ध चल रहा है, यही पाशव मानव और आध्यात्मिक मानव का संग्राम, प्रकाश और अन्धकार का संग्राम निर- न्तर जारी है। मानव यहाँ भी जीत रहा है। स्वाधीनता की प्राप्ति के लिये प्रकृति के बन्धन को चीर कर मनुष्य अपने गन्तव्य मार्ग को प्राप्त करता है। हमने अभीतक माया का ही वर्णन देखा है। वेदान्ती पण्डितो ने इस माया को अतिक्रमण करके ऐसी किसी वस्तु को जान लिया है जो माया के अधीन नहीं है, और यदि हम उसके पास पहुँच सके तो हम भी माया के पार हो जायँगे। ईश्वरवादी सभी धर्मों की यह साधारण सम्पत्ति है। किन्तु वेदान्त के मत में यह धर्म का प्रारम्भ है. अन्त नहीं। जो विश्व की सृष्टि तथा पालन करने वाले है, जो मायाधिष्ठित हैं, जिन्हे माया या प्रकृति का कर्ता कहा जाता है, उन्हीं सगुण ईश्वर का ज्ञान वेदान्त का अन्त नहीं है। यही ज्ञान बढ़ते बढ़ाते, अन्त में वेदान्ती देखता है कि जिसे वह बाहर खड़ा हुआ समझता था वह उसके अन्दर ही है और वह स्वयं वही है। जो अपने को बद्धभावापन्न समझता था वह स्वयं ही वही मुक्त- स्वरूप है।

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