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माया

भारत के प्राचीन आचार्य, प्राचीन ऋषि जंगल में बैठे इस प्रश्न पर विचार कर रहे हैं, बड़े बड़े वयोवृद्ध पवित्रमय महर्षिगण भी इसकी मीमांसा करने में असमर्थ रहे हैं परन्तु एक बालक उनके बीच खड़े हो कर घोषणा करता है―"हे दिव्य धामवासी अमृत के पुत्रगण! सुनो, मुझे मार्ग मिल गया है। जो अन्धकार से अतीत है उसे जान लेने पर अन्धकार के बाहर जाने का मार्ग मिल जाता है।

श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।
आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस. परस्तात्।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

(श्वेताश्वतर उपनिषद्)

इसी उपनिषद् से हमें यह उक्ति भी मिलती है कि यह माया हमें चारों ओर से घेरे हुये है एवं वह अति भयङ्कर है। माया के बीच में से होकर कार्य करना असम्भव है। जो यह कहता है कि "मैं इस नदी के तट पर बैठा हूँ, जब सारा पानी समुद्र में पहुँच जायगा तब मैं नदी के पार जाऊँगा." वह उतनी ही भूल करता है जितनी कि यह कहने वाला कि "जब तक पृथिवी पूर्ण मंगलमय नहीं हो जाती उतने दिन कार्य करते रहने के बाद सुख भोग करूँगा। दोनों ही बातें असम्भव है। माया के बीच में से रास्ता नहीं है, माया के विरुद्ध चल कर ही रास्ता मिलेगा—यह बात भी माननी पड़ेगी। हमारा जन्म प्रकृति के सहायक रूप में नहीं वरञ्च प्रकृति के विरोधी के रूप में हुआ है। हम बन्धन के कर्ता होकर भी स्वयं को बन्दी बनाने की चेष्टा करते है। यह मकान कहाँ से