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माया

कभी भी न हो सकेगा। ऐसा समय आयेगा जब अन्तरात्मा जागगा―इस लम्बे विषादमय स्वप्न से जाग उठेगा; बालक खेल- कूद छोड़ कर अपनी जननी के निकट लौट जाने को उद्यत होगा। वह समझेगा―

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविपा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते॥

काम्य वस्तु के उपभोग से कभी वासना की निवृत्ति नहीं होती, वरञ्च घृताहुति के द्वारा अग्नि के समान वासना और भी बढ़ती है। इस प्रकार क्या इन्द्रिय विलास, क्या बुद्धि-वृत्ति के परि- चालन से उत्पन्न आनन्द, क्या मानवात्मा का उपभोग्य सब प्रकार का सुख―सभी मिथ्या है―सभी माया के अधीन है। सभी इस संसार के बन्धन के अन्तर्गत हैं: हम उसे अतिक्रमण नही कर पाते। हम उसके अन्दर अनन्त काल पर्यन्त दौड़ते फिर सकते है, किन्तु उसका अन्त नहीं पा सकते; एवं जब भी हम सुख का कण प्राप्त करने की चेष्टा करेगे तभी दुख का ढेर हमे घेर लेगा। यह कितनी भयानक अवस्था है! जब मैं इस पर विचार करने की चेष्टा करता हूँ, मुझे निःसशय ही यह अनुभूति होती है कि यही मायावाद है―सभी कुछ माया है―यह वाक्य ही इसकी एक मात्र ठीक ठीक व्याख्या है। इस संसार में क्या दुःख ही वर्तमान है! यदि आप लोग विभिन्न जातियो के बीच परिभ्रमण करेंगे तो आप समझ सकेगे कि यदि एक जाति अपने दोष का एक उपाय के द्वारा प्रतिकार करने की चेष्टा कर रही है तो दूसरी किसी अन्य उपाय का अवलम्बन कर रही है। एक ही दोष को विभिन्न जातियो ने विभिन्न प्रकार से प्रतिरोध करने