कुछ अनुभव या कल्पना कर पाते हैं वही हमारा जगत् है—बाह्य वस्तुओं को हम इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं और भीतर की वस्तु को हम मानस-प्रत्यक्ष अथवा कल्पना कर सकते हैं। अतएव जो कुछ हमारे शरीर के बाहर है वह इन्द्रियों के भी बाहर है और जो हमारी कल्पना के बाहर है वह हमारे मन के बाहर है और इसीलिये हमारे जगत् के बाहर है। अतएव कार्य-कारण-सम्बन्ध के बहिर्देश में स्वाधीन शास्ता आत्मा रहता है। ऐसा होने से ही वह नियमों के अन्तर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करता है। आत्मा नियम से अतीत है, इसीलिये निश्चय ही मुक्तस्वभाव है; वह किसी प्रकार भी मिश्रणोत्पन्न पदार्थ नहीं हो सकता—अथवा किसी कारण का कार्य नहीं हो सकता। उसका कभी विनाश नहीं हो सकता, कारण विनाश का अर्थ है किसी यौगिक पदार्थ का अपने उपादानों में परिणत हो जाना। अतएव जो कभी संयोग से उत्पन्न नहीं हुआ उसका विनाश किस प्रकार होगा? उसकी मृत्यु होती है या विनाश होता है ऐसा कहना केवल एक असम्बद्ध प्रलाप है।
किन्तु यही पर इस प्रश्न का निश्चित सिद्धान्त नहीं मिला। अब हम और भी सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे है और आप में से कुछ लोग शायद भयभीत भी हो रहे होंगे। हमने देखा कि यह आत्मा भूत, शक्ति एव चिन्ता रूप क्षुद्र जगत् के अतीत एक मौलिक (Simple) पदार्थ है, अतः इसका विनाश असम्भव है। इसी प्रकार उसका जीवन भी असम्भव है। कारण, जिसका विनाश नहीं उसका जीवन भी कैसे हो सकता है? मृत्यु क्या है? मृत्यु एक पृष्ठ या पहलू है, और जीवन उसी का एक दूसरा पृष्ठ या पहलू है। मृत्यु का और एक नाम है