विकसितावस्था में ही तो निरपेक्ष स्वरूप अपने को व्यक्त कर रहा है। जब तक अनन्त स्वरूप अपने को सम्पूर्ण रूप से बाहर निकाल नहीं पाता तब तक हमे इसी अभिव्यक्ति में उत्तरोत्तर सहायता करनी होगी। सुनने में यह बात बड़ी मधुर है, और हमने अनन्त, विकास, व्यक्ति आदि दार्शनिक शब्दों का भी प्रयोग किया। किन्तु सान्त किस प्रकार अनन्त हो सकता है, एक किस प्रकार दो कोटि का हो सकता है, इस सिद्धान्त की न्यायसंगत मूलभित्ति क्या है, यह प्रश्न तो दार्शनिक पण्डित लोग स्वभावतः ही पूछ सकते है। निरपेक्ष एव अनन्त सत्ता सोपाधिक होकर ही इस जगत् रूप में प्रकाशित हुई है। यहाँ पर सभी कुछ सीमाबद्ध रहेगा ही। जो कुछ भी इन्द्रिय, मन और बुद्धि के भीतर से आयेगा उसको स्वतः ही सीमाबद्ध होना पड़ेगा, अतएव ससीम का असीम होना नितान्त मिथ्या है। ऐसा हो ही नहीं सकता।
दूसरे पक्ष में, वेदान्त कहता है, यह ठीक है कि निरपेक्ष एवं अनन्त सत्ता अपने को सान्त रूप में व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है। किन्तु एक समय ऐसा आयेगा जब इस उद्योग को असम्भव जान कर उसे अपने पाँव पीछे लौटाने पड़ेगे। यह पीछे पाँव लौटाना ही यथार्थ धर्म का आरम्भ है। वैराग्य ही धर्म का प्रारम्भ है। आधुनिक मनुष्य से वैराग्य की बात कहना अत्यन्त कठिन है। अमेरिका में मेरे बारे में लोग कहते हैं कि मानो मैं पाँच हजार वर्ष पूर्व के किसी अतीत और विलुप्त ग्रह से आकर वैराग्य का उपदेश दे रहा हूँ; इंग्लैंड के दार्शनिक पंडित शायद यही कहेगे। किन्तु वैराग्य और त्याग ही केवल इस जीवन की एक मात्र सत्य वस्तु है। प्राणपण से चेष्टा करके देखो यदि कोई दूसरा उपाय प्राप्त कर सकते हो। यह