कोई गति नहीं हो सकती। प्रत्येक वस्तु को ही घूम फिर कर अपने पूर्व स्थान पर लौट आना पड़ता है, क्योंकि सरल रेखा अनन्त भाव से बढ़ाने पर वृत्त में परिणत होती है। यदि ऐसा ही हुआ तो अनंत काल तक किसी आत्मा की अवनति हो ही नहीं सकती—यह किसी तरह हो ही नहीं सकता। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु, शीघ्र हो या विलम्ब से ही हो, अपनी अपनी वर्तुलाकार गति को सम्पूर्ण कर फिर अपनी उत्पत्ति के स्थान पर पहुँचती है। तुम, मैं अथवा ये सब आत्माएँ क्या हैं? पहले क्रमसंकोच तथा क्रमविकास तत्व की आलोचना करते हुए हमने देखा है, तुम, हम, उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंशविशेष हैं; हम उसी के संकोचस्वरूप हैं। अतएव घूमकर हम क्रमविकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्वव्यापी चैतन्य में लौट जायेंगे—वह विश्वव्यापी चैतन्य ही ईश्वर है। लोग उसी विश्वव्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं—जड़वादी उसी की शक्ति के रूप में उपलब्धि करते हैं एवं अज्ञेयवादी उसी की उस अनंत अनिर्वचनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं। वही वह विश्वव्यापी प्राण है, वही विश्वव्यापी चैतन्य है—वही विश्वव्यापिनी शक्ति है और हम सब उसी के अंश हैं।
किन्तु आत्मा के अमरत्व को प्रमाणित करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है। अभी भी अनेक संशय और आशंकायें रह गईं। किसी शक्ति का नाश नहीं है, यह बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, किन्तु वास्तविक बात यह है कि हम जितनी भी शक्तियाँ देखते हैं सभी मिश्रणोत्पन्न हैं, जितने भी रूप देखते हैं सभी मिश्रण से उत्पन्न हैं। यदि आप शक्ति के सम्बन्ध में विज्ञान का मत ग्रहण कर