क्रमसंकोच से। बालक क्रमसकुंचित मनुष्य है और मनुष्य क्रमविकसित बालक है। क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रमविकसित बीज ही वृक्ष। सभी प्रकार के जीवन की उत्पत्ति की सम्भावना उन्हीं के बीज में है। अब यह समस्या कुछ सरल हो जाती है। अब इसी तत्त्व के साथ पूर्वोक्त समुदय जीवन की अखण्डता की आलोचना करो। क्षुद्रतम जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यंत वस्तुतः एक ही सत्ता है—एक ही जीवन वर्तमान है। जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थायें देखते हैं उसी प्रकार शैशव अवस्था के पीछे क्या है यह देखने के लिये विपरीत दिशा में अग्रसर होकर देखो, देखते जाओ जब तक कि तुम जीवाणु तक न पहुँच जाओ। इसी प्रकार इस जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यंत मानो एक ही जीवन-सूत्र विराजमान है। इसी को क्रमविकास कहते हैं और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि प्रत्येक क्रमविकास से पूर्व ही एक क्रमसंकोच रहता है। जो जीवनी शक्ति क्षुद्रतम जीवाणु से लेकर धीरे धीरे पूर्णतम मानव अथवा पृथिवी पर आविर्भूत ईश्वरावतार रूप में क्रमविकसित होती है वह सम्पूर्ण शक्ति अवश्य ही सूक्ष्म रूप से जीवाणु में अवस्थित थी। यह समस्त श्रेणी उसी एक जीवन की ही अभिव्यक्ति मात्र है, और यह समुदय व्यक्त जगत् उसी एक जीवाणु में अव्यक्त भाव से निहित था। यह समस्त जीवनी शक्ति, और तो क्या, मर्त्य लोक में अवतीर्ण ईश्वर तक इसमें अन्तर्निहित थे। अवतार श्रेणी के मानव तक इसके अन्दर निहित थे; केवल धीरे धीरे—बहुत धीरे क्रमशः उन सब की अभिव्यक्ति हुई है। जो सर्वोच्च चरम अभिव्यक्ति है वह भी अवश्य ही बीज भाव से सूक्ष्माकार में उसके अन्दर मौजूद थी—फिर ऐसा होने पर यह जो एक शक्ति से सभी श्रेणियाँ
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