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आत्मा का मुक्त स्वभाव


विशेष आपत्ति है। स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, जिस समय दैहिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक शिक्षा पाते है, उस समय मै उनसे एक मात्र यही प्रश्न करता हूॅ--"क्या तुम इससे बल पाते हो?" क्योंकि मैं जानता हूॅ एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। मैं जानता हूँ, सत्य ही एकमात्र प्राणप्रद है। सत्य की ओर गये बिना हम किसीसे भी वीर्यलाभ नहीं कर सकते और वीर हुए बिना सत्य के समीप भी नहीं पहुॅच सकते। इसी हेतु जो कोई मत, जो शिक्षाप्रणालियाँ मन और मस्तिष्क को दुर्बल कर दें और मनुष्य को कुसस्काराविष्ट कर डाले, जिनसे मनुष्य अन्धकार मे टटोलता रहे, जिनसे मनुष्य सदैव ही सब प्रकार के विकृतमस्तिष्क-प्रसूत असंभव, अजीब और कुसंस्कारपूर्ण विषयो के अन्वेषण में लग जाय, मै उन सब प्रणालियों को पसन्द नहीं करता, क्योकि मनुष्यो के ऊपर उन सब का परिणाम बडा भयानक होता है, और उनसे कुछ भी उपकार नहीं होता, वे सब व्यर्थ है।

जो इन बातों से अभिज्ञ है, वे हमारे साथ इस विषय मे एक- मत होंगे कि ये सब मनुष्य को विकृत और दुर्बल बना डालती हैं--इतना दुर्बल कि क्रमशः उसके लिए सत्यलाभ करना और उस सत्य के आलोक मे चलकर जीवन यापन करना एक प्रकार से असभव हो जाता है। अतएव हमारे लिये आवश्यक है एक मात्र बल या शक्ति मे शक्ति-संचार ही इस भव-व्याधि की एकमात्र महौषधि है। धनहीन व्यक्ति जब धनियो द्वारा पददलित होते है, उस समय शक्तिसंचार ही उनके लिये एक मात्र औषधि है। जब मूर्ख विद्वानों द्वारा उत्पीडित होता है उस समय भी बल ही एक मात्र औषधि है। और जिस समय पापिगण अन्य पापियो से उत्पीड़ित होते हैं, उस समय भी यही