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आत्मा का मुक्त स्वभाव


कारण है, इसका और दूसरा कोई कारण नही। सभी प्रकार के कदन्न और दुप्पाच्य खाद्य खाकर और निरन्तर उपवास करके हमने अपने को सुखाद्य खाने के अनुपयुक्त कर रखा है। हमने बचपन से ही दुर्बलता की बाते सुनी है। यह दुर्बलता भूत मे विश्वास करने के समान ही है। लोग सर्वदा कहते हैं कि मै भूत को नही मानता --किन्तु ऐसे बहुत कम लोग मिलेगे, जिनका शरीर अन्धेरे मे थोड़ा कम्पित न हो जाय। यह केवल कुसंस्कार है। ठीक इसी तरह लोग कहा करते है कि हम इसे नहीं मानते, उसे नहीं मानते इत्यादि--किन्तु समय आने पर अवस्थाविशेष मे अनेक व्यक्ति मन ही मन कहने लगते है, यदि कोई देवता या ईश्वर हो तो मेरी रक्षा करे। वेदान्त से यही एक प्रधान तत्त्व मिलता है, और एक मात्र यही सनातनत्व का दावा कर सकता है।

वेदान्त ग्रन्थ कल ही नष्ट हो सकते हैं। यह तत्व चाहे पहले हिब्रुओ के मस्तिष्क मे उदित हुआ हो या उत्तर मेरु के निवासियो के मस्तिष्क मे, इससे कोई प्रयोजन नही; किन्तु यह सत्य है, और जो सत्य है वह सनातन है, तथा सत्य हमे यही शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है। मनुष्य, पशु, देवता, ये सभी इस एक सत्य के अधिकारी हैं। उन्हे यही सिखाओ, जीवन को दुःखमय बनाने की क्या आवश्यकता है? लोगो को अनेक प्रकार के कुसंस्कारो मे क्यो पड़ने देते हो? केवल यहाॅ (इंग्लैण्ड मे) ही नही, इस तत्व की जन्मभूमि मे भी तुम यदि इस तत्व का उपदेश करो, तो वहाँ के लोग भी भयभीत होंगे। और कहेगे--ये बाते तो संन्यासियो के लिये हैं जो संसार को त्याग कर जंगल मे निवास