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आत्मा का मुक्त स्वभाव

फिर भी द्वैतवादियों के धर्म मे भी अनेक अपूर्व उत्तम उत्तम भाव है--प्रकृति से पृथक् हमारे उपास्य और प्रेमास्पद सगुण ईश्वर हैं--ऐसा सगुण ईश्वरवाद अत्यन्त अपूर्व है। अनेक समय इससे प्राण शीतल होजाता है--किन्तु वेदान्त कहता है, प्राण की यह शीतलता अफीम खानेवालो की नशा के समान अस्वाभाविक है। और इससे दुर्बलता आती है और जगत् में पहले बलसंचार की जितनी आवश्यकता नही थी, आज जगत् मे उसी बलसंचार--शक्तिसंचार की उतनी ही अधिक आवश्यकता है। वेदान्त कहता है--दुर्बलता ही संसार में समस्त दुःख का कारण है, इसीसे सारे दुःख-भोग पैदा होते है। हम दुर्बल है इसीलिये इतने दुःख को भोगते हैं। हम दुर्बलता के कारण ही चोरी-डकैती, झूठ-ठगी तथा इसी प्रकार के अनेकानेक अन्य दुष्कर्म करते हैं। दुर्बल होने के कारण ही हम मृत्यु के मुख मे गिरते है। जहाॅ हमे दुर्बल बनाने वाला कोई नहीं है, वहाॅ मृत्यु अथवा दूसरा किसी प्रकार का दुःख नही रह सकता। हम लोग केवल भ्रान्तिवश ही दुःख भोगते है। इस भ्रान्ति को उन्मूलित करो, सभी दुःख चले जायेंगे। यह तो बहुत सरल बात है। इन सभी दार्शनिक विचारो और कठोर मानसिक व्यायाम के भीतर से होकर हम समस्त ससार के सर्वापेक्षा सहज एव सरल आध्यात्मिक सिद्धान्त पर पहुॅच जायॅगे।

अद्वैत वेदान्त जिस रूप मे आध्यात्मिक सिद्धान्त स्थापित करता है, वही सबसे अधिक सहज तथा सरल है। भारत तथा अन्य सभी स्थानों में इस विषय में एक बड़ा भ्रम उत्पन्न हुआ था। वेदान्त के आचार्यों ने स्थिर किया था कि यह शिक्षा सार्वजनीन नही बनाई