विश्वब्रह्माण्ड मे तुम किसी के भी निकट ऋणी नही हो। तुम्हे अपना जन्मप्राप्त अधिकार ही प्राप्त करना है। एक प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य ने यही भाव अपने किसी ग्रन्थ के नाम में ही बड़े सुन्दर भाव से प्रकट किया है। ग्रन्थ का नाम है 'स्वराज्यसिद्धि' अर्थात् हमारा अपना राज्य, जो खो गया था, उसकी पुनःप्राप्ति। वही राज्य हमारा है, हमने उसे खो दिया है, फिर हमे उसे प्राप्त करना होगा। किन्तु मायावादी कहते है--यह राज्यनाश केवल हमारा भ्रम मात्र है, हमारे राज्य का नाश तो कभी हुआ ही नही--बस यही दोनों मे भेद है।
यद्यपि इस विषय में कि हमारा जो राज्य था, उसे हमने खो दिया हैं, सभी धर्म-प्रणालियाॅ एकमत है तथापि वे उसे फिर से पाने के उपाय के बारे मे विभिन्न उपदेश दिया करती है। कोई कहते है--कुछ विशिष्ट क्रियाकलाप, प्रतिमा आदि की पूजा-अर्चना करने से और स्वय कुछ विशेष नियमानुसार जीवन यापन करने से वह स्वराज्य मिल सकता है। कुछ और लोग कहते है--यदि तुम प्रकृति से अतीत पुरुष के सम्मुख अपने को नतकर रोते रोते उसके निकट क्षमा प्रार्थना करो, तो तुम पुनश्च उस राज्य को प्राप्त कर लोगे। दूसरे कोई कहते है--यदि तुम इस पुरुष से अन्तःकरणपूर्वक प्रेम कर सको, तो तुम फिर से इस राज्य को प्राप्त कर सकोगे। उपनिषद मे ये सभी उपदेश पाये जाते हैं। क्रमशः हम तुम्हे जितना उपनिषद समझायगे, उतना ही तुम यह समझते जाओगे। किन्तु सर्वश्रेष्ठ अन्तिम उपदेश यह है कि तुम्हारे रोने का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। तुम्हारे इन क्रियाकलापो की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। क्या क्या करने से राज्य की पुनः प्राप्ति होगी, इस चिन्ता की तुम्हें कोई आवश्यकता